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उन्होंने बताया कि पैगम्बर हजरत मोहम्मद साहब के नवासे हजरत इमाम हुसैन ने इस्लाम और इंसानियत के लिए यजीदियों की यातनाएं सही और पूरे परिवार समेत हक के लिए कर्बान हो गए। करबला के मैदान में इमाम हुसैन का मुकाबला ऐसे जालिम और जाबिर शख्स से हुआ था, जिसने खिलाफ को बादशाहत में तब्दील कर दिया था। उसकी ताकत का अंदाजा इस बात से लगाया जाता है कि उसकी सलतनत की सरहदें अरब से लेकर मुलतान और आगे तक फैली हुई थी। उसके जुल्म को रोकने के लिए इमाम हुसैन आगे बढ़े। उस वक्त उनके साथ सिर्फ 72 हक परस्त (सैनिक) थे, तो दूसरी तरफ यजीद का सेना नायक 22000 हथियारों से लैस फौज था।
हजरत इमाम हुसैन ने अपने लिए कुछ नहीं किया। उन्होंने सिर्फ मुसलमानों के मजहब, इस्लामी सिद्धांत और ईमान के लिए वे अपना सब कुछ गंवा दिया। करबला की जंग देखने में यू तो एक छोटी सी जंग थी, लेकिन यह युद्ध विश्व की सबसे बड़ी जंग साबित हुई। दरअसल, इन्ही मुट्ठी भर लोगों ने अपनी शहादत देकर दुनिया को एक हक के लिए हमेशा संघर्ष करने वालों को एक रोशनी दिखाई थी। यही वजह है कि इमाम हुसैन ने पूरे परिवार के साथ शहीद होकर इस्लाम का परचम लहराया था।
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यजीद ने अपनी ताकत के बल पर इमाम हुसैन के कुनबे को तो शहीद कर दिया, लेकिन वह सैद्धांतिक तौर पर अपनी लड़ाई को हार गया। हजरत इमाम हुसैन ने अपनी शहादत देकर पूरी इंसानियत को यह पैगाम दिया कि शहादत मौत नहीं, जो दुश्मन की तरफ से हम पर लादी जाती है, बल्कि शहादत एक मनचाही मौत है, जिसे हक के लिए लड़ने वाला एक मुजाहिद उसके अंजाम को जानने के बाद भी जानबूझकर उसे चुनता है।
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मोहर्रम की 10वीं तारीख को करबला के मैदान में नवासा-ए-रसूल हजरत इमाम हुसैन ने अपने 72 हक परस्तों (सैनिकों) के साथ दीन-ए-रसूल (इस्लाम) को बचाने के लिए अपनी और अपने घर व खानदान वालों के साथ कुर्बानी दे दी। इसमें मर्द, युवा और दुधमुंहे बच्चों समेत भूखे-प्यासे शहीद हो गए। युद्ध के बाद इमाम हुसैन की शहादत के बाद काफिले में बची औरतें और बीमार लोगों को यजीद की सेना ने गिरफ्तार कर लिया था। इसके साथ ही जालिमों ने उनके खेमे (टेंट) में आग लगा दी थी। हालांकि, जह खाननदान-ए-नबी को जब यजीद के सामने पेश किया गया तो गिरफ्तार लोगों के काफिले को यजीद ने मदीना जाने की अनुमति दी और अपने सैनिकों से वापस पहुंचाने को कहा। दमिश्क से वापसी के वक्त हजरत जैनुल आबेदीन (इमाम हुसैन के बीमार बेटे) ने मदीना वापसी के दौरान करबला पहुंचे और करबला में शहीद हुए अपने परिजनों को कब्र में दफ्नाया। बताया जाता है कि वह दिन इमाम हुसैन की शहादत का चहल्लुम यानी चालीसवां दिन था। इसी घटना की याद में तब से ही मुसलमान मोहर्रम के 40वें दिन चहल्लुम मनाता आ रहा है।
इस दिन मुसलमान गरीबों को खाना खिलाते हैं। जगह-जगह पानी और शरबत बांटे जाते हैं। जगह-जगह कुरआन खानी (कुरआन पढ़ने) का इंतजाम किया जाता है। इसके सात ही करबला में शहीद होने वाले मुजाहिद-ए-इस्लाम के लिए दुआएं की जाती है। वहीं, शिया मुसलमान अलम लेकर जुलुस निकालकर मातम मनाते हैं।