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लिव-इन-रिलेशनशिप: विवाह की अनदेखी से समाज में अस्थिरता और नैतिक संकटता का अंदेशा

डॉ. ऋतु सारस्वत समाजशास्त्री एवं स्तंभकार

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संबंधों की स्वतंत्रता या सामाजिक विघटन?

हा ल ही जे.शेन आलम बनाम उत्तर प्रदेश राज्य मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने विवाह का झूठा वादा कर महिला का यौन शोषण करने के आरोपी को जमानत देते हुए कहा कि लिव-इन-रिलेशनशिप की अवधारणा भारतीय मध्यमवर्गीय समाज में स्थापित नियमों के विरुद्ध है। जस्टिस सिद्धार्थ की पीठ ने न्यायालयों में पहुंचने वाले ऐसे मामलों की बढ़ती संख्या पर भी नाराजगी व्यक्त की। पीठ ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा लिव-इन-रिलेशनशिप को वैध बनाए जाने के बाद न्यायालय ऐसे मामलों से तंग आ चुका है। ये मामले न्यायालय में इसलिए आ रहे हैं, क्योंकि लिव-इन-रिलेशनशिप की अवधारणा भारतीय मध्यमवर्गीय समाज में स्थापित मानकों के विरुद्ध है। उल्लेखनीय है कि 28 अप्रेल 2010 को देश की शीर्ष अदालत ने एस. खुशबू बनाम कन्नियाम्मल मामले में टिप्पणी देते हुए कहा था कि दो वयस्·, बिना औपचारिक विवाह के साथ रह सकते हैं और इसे अवैध नहीं माना जाएगा।
इसमें किंचित भी संदेह नहीं कि जीवनसाथी का चुनाव और उसके साथ बिना विवाह के रहना पूर्ण रूप से एक व्यक्तिगत मामला है। विवाह को पुरातनपंथी मानने वाली सोच नारी सशक्तीकरण को उस विघटनकारी रूप में सामने आ रही है जिसका अंततोगत्वा दुष्परिणाम महिलाओं के हिस्से आता है। सिर्फ महिलाओं के हिस्से ही क्यों? यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है और यह नारी विरोधी भी प्रतीत होता है। इस प्रश्न का उत्तर अगस्त 2023 में ‘अदनान बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और 3 अन्य’ के मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय की टिप्पणी में मिलता है, ‘अधिकांश लिव-इन मामलों में जोड़े के बीच ब्रेकअप (संबंध विच्छेद) हो जाता है। ब्रेकअप के बाद महिला साथी के लिए समाज का सामना करना मुश्किल हो जाता है। मध्यम वर्ग का समाज ऐसी अलग हुई महिला को सामान्य नहीं मानता। सामाजिक बहिषकार से लेकर अभद्र सार्वजनिक टिप्पणियां लिव-इन-रिलेशनशिप के बाद उसके कष्टों का हिस्सा बन जाती हैं।’
नव नारीवाद किंचित यह स्वीकार कर चुका है कि स्वतंत्रता, समानता तथा सशक्तीकरण का पथ विवाह मुक्ति के मार्ग से ही होकर निकलता है। यह विचारधारा युवा पुरुषों और स्त्रियों दोनों को ही आश्वस्त करती हैं कि बिना वैवाहि· संबंध के संसर्ग स्वस्थ है। यह विचारधारा उस परंपरागत सोच से असहमत है जो यह स्थापित करती है कि उत्तरदायित्व के बिना संसर्ग न केवल अस्वस्थकर है अपितु युवाओं को भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक आपदा की ओर धकेलता है।

1934 में प्रकाशित, मानव विज्ञानी जे.डी. अनविन की एक पुस्तक 80 मूल संस्कृतियों और 6 सभ्यताओं के अध्ययन पर आधारित है। एक विस्तृत और गहन शोध के बाद अनविन बताते हैं कि संस्कृति का उच्चतम उत्कर्ष, सबसे शक्तिशाली संयोजन विवाह पूर्ण शुद्धता के साथ ‘पूर्ण एकपत्नीत्व’ था। वे संस्कृतियां जिन्होंने कम से कम तीन पीढ़ियों तक इस संयोजन को बनाए रखा वे साहित्य, कला, विज्ञान, वास्तुकला और कृषि सहित हर क्षेत्र में सभी अन्य संस्कृतियों से आगे रहीं।

निश्चित ही व्यक्तिगत स्वतंत्रता के समक्ष समाज, राष्ट्र और संस्कृति के संरक्षण की बात करना वर्तमान युवा पीढ़ी को हास्यास्पद प्रतीत होता है। अगर क्षण भर को उनकी इस सोच को स्वीकार कर भी लिया जाए तो क्या वे स्वयं के हितों का संरक्षण कर पा रहे हैं? यह प्रश्न उठाना इसलिए स्वाभाविक है कि वैवाहिक रिश्तों से परे लिव-इन में रहने की सोच अगर तथाकथित उनकी स्वतंत्रता के हितों का संरक्षण करती तो न्यायालय में ऐसे युवाओं की भीड़ अदालतों में नहीं होती जो अपनी लिव-इन साथी के आरोप के विरुद्ध न्यायालय का दरवाजा खटखटा रहे हैं। ‘अदनान बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और 3 अन्य’ के मामले में ही इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने तल्ख टिप्पणी करते हुए कहा था ‘विवाह संस्था व्यक्ति को जो सुरक्षा, सामाजिक स्वीकृति, प्रगति और स्थिरता प्रदान करती है, वह लिव-इन-रिलेशनशिप कभी नहीं दे सकती। लिव-इन-रिलेशनशिप को इस देश में विवाह संस्था के अप्रचलित हो जाने के बाद ही सामान्य माना जाएगा, जैसे की तथाकथित विकसित देशों में विवाह संस्था की रक्षा करना उनके लिए एक बड़ी समस्या बन गई है। हम भविष्य में अपने लिए बड़ी समस्या पैदा करने जा रहे हैं। इस देश में विवाह संस्था को नष्ट करने और समाज को अस्थिर करने और प्रगति में बाधा डालने की व्यवस्थित योजना है। फिल्मों और टीवी धारावाहिकों के प्रसारण से विवाह संस्था का खात्मा हो रहा है। विवाहित रिश्तों में साथी के साथ बेवफाई और स्वतंत्र लिव-इन-रिलेशनशिप को प्रगतिशील समाज की निशानी बताया जा रहा है। युवा पीढ़ी ऐसे दर्शन की ओर आकर्षित हो रही है, क्योंकि उन्हें इसके दीर्घकालिक परिणामों का पता नहीं है। एक रिश्ते से दूसरे रिश्ते में कूदना किसी भी तरह से संतोषजनक जीवन नहीं है। हर मौसम में साथी बदलने की जो अवधारणा है वह स्थिर और स्वस्थ समाज की पहचान नहीं मानी जा सकती। विवाह संस्था व्यक्ति के जीवन को जो सुरक्षा और स्थिरता प्रदान करती है, वह लिव-इन-रिलेशनशिप से अपेक्षित नहीं है।’ न्यायालय की यह टिप्पणी युवा पीढ़ी के लिए चेतावनी है कि अगर उसने अपनी सोच में परिवर्तन नहीं किया तो उसे इसकी भारी कीमत चुकानी होगी।