क्षेत्रीय दलों का उद्भव और विस्तार अचानक नहीं हुआ। जब कांग्रेस का समूचे देश में रूतबा होता था, तब वह एक ऐसी पार्टी थी जिसमें सभी तरह के लोगों तथा क्षेत्रीय हितों के प्रतिनिधियों के लिए जगह हुआ करती थी। मगर जब से कांग्रेस में केंद्रीय नेतृत्व का एकाधिकार पनपा और अन्यों के लिए जगह कम होती गई, छोटे क्षेत्रीय दल पनपते चले गए। आज क्षेत्रीय दल अपने मतदाता समूहों के हित में मजबूती से खड़े होकर ऐसी स्थिति में हैं कि कांग्रेस और भाजपा दोनों राष्ट्रीय दलों के लिए उनके साथ गठबंधन करना मजबूरी हो चला है। केंद्र में सत्ता पाने के लिए इन दिनों कांग्रेस और भाजपा दोनों दल क्षेत्रीय पार्टियों के साथ गठबंधन बनाने के लिए जुटे हैं, क्योंकि दोनों को नहीं लगता कि वे अकेले अपने बूते पर चुनावी रण में जीत हासिल कर सकते हैं। ऐसा इसलिए भी है कि भारत विविधताओं का देश है।
कभी कांग्रेस में सभी विविधताओं के लिए स्थान होता था, इसलिए वह हकीकत में देशव्यापी पार्टी हुआ करती थी। नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट (एनडीए) उस कांग्रेस के विकल्प के रूप में उभरा, जिसमें सब के लिए जगह थी। अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में बनी एनडीए सरकार वास्तव में यह विकल्प थी। मौजूदा एनडीए का वैसा स्वरूप नहीं बना, क्योंकि उसमें वही समस्या हुई जो कांग्रेस में हुई थी कि अन्यों के लिए स्पेस कम हो गया। चुनाव के ऐन मौके पर केंद्र में शासन के दावेदार दोनों ही दलों को अब समझ में आ रहा है कि क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन किए बिना गुजारा संभव नहीं है। इसके लिए दोनों दलों के नेता क्षेत्रीय दलों के नेताओं के साथ अदब से पेश आ रहे हैं और थोड़ा झुक भी रहे हैं। यह दर्शाता है कि हमारे विविधता वाले देश में एकाधिकारवाद नहीं चल सकता। जैसा कि हम देख रहे हैं क्षेत्रीय दल नई राजनीतिक चालों में अपने पासे बड़ी होशियारी से चल रहे हैं और अनेक बार राष्ट्रीय दलों को मजबूरी की हालत में डाल दे रहे हैं। ऐसे में कुछ क्षेत्रीय राजनीतिक दलों के नेताओं की निगाह प्रधानमंत्री की कुर्सी पर भी हो, तो क्या आश्चर्य है!