
हमारे देश में चुनाव चाहे किसी भी स्तर के हों उसमें चुनाव खर्च की सीमा तय होती है। लेकिन हर बार चुनाव प्रचार में जो माहौल देखने को मिलता है उसे देखकर लगता नहीं कि उम्मीदवार व राजनीतिक दल इस सीमा का ध्यान रखते हों। चुनावों में काले धन के इस्तेमाल पर श्रद्धेय कुलिश जी ने 48 बरस पहले लिखा कि राजनेताओं की एक अलग बिरादरी कायम हो चुकी है,जो इस तरह की बुराई को बुराई नहीं, बल्कि धर्म मानती है। उस वक्त चुनाव खर्च की सीमा भी कम ही थी। आलेख के प्रमुख अंश
संसद या विधानसभाओं में कितने सदस्य ऐसे हैं, जो कानून में निर्धारित सीमा में खर्च करके चुनाव जीते हैं। कितने सांसद अपने दिल पर हाथ रखकर कह सकते हैं कि उन्होंने सिर्फ 35000 रुपए में चुनाव जीता है। कितने सांसद या विधायक अपने दिल पर हाथ रखकर कह सकते हैं कि उनके चुनाव में कालाधन खर्च नहीं हुआ? अपवाद की बात मैं नहीं कहता परन्तु आम धारणा और अनुभव यह है कि कानून में निर्धारित सीमा से कई गुणा खर्च एक सांसद के चुनाव में होता है और हुआ है। आखिर यह धन कहां से आता है और क्यों आता है? अगर कोई अपने घर से भी खर्च करता है तो वह कानून की नजर में चोर बने बिना नहीं रह सकता। काला धन अपना हो या पराया हो, है तो काला धन। यह चोरी या बेईमानी नहीं तो क्या है? क्या यह नाजायज काम नहीं है? लेकिन जैसा मैंने कहा, राजनेताओं की एक अलग बिरादरी कायम हो चुकी है जो इस तरह की बुराई को बुराई न मानकर धर्म मानकर चलती है। एक व्यापारी जो कमाने को ही सबसे बड़ा धर्म मानता है, उसकी बेईमानी को हम सरेआम डंके की चोट बेईमानी कहते हैं, ठीक भी कहते हैं। लेकिन नाजायज घोर बेईमानी की पूंजी से चुनाव जीतने वाले को हम चोर-बेईमान नहीं मानते। जानते सभी हैं। व्यापारी भी जानते हैं और अफसर भी। न सिर्फ चुनाव लडऩे को, बल्कि राजनेताओं के लिए तो बेईमानी का पैसा बटोर कर घर भर लेना अपराध नहीं है। यही कारण है कि एक राजनेता के घर पर पुलिस पहुंच जाती है तो सारी बिरादरी में चिल्लापों मच जाती है। यही कारण है कि राजनेताओं की अपीलें बेअसर हो जाती हैं। यही कारण है कि बुराई की जड़ पर चोट नहीं पड़ती। देखने में यही आया है कि व्यापारी एक कान सुनकर दूसरे कान निकाल देते हैं। कहते हैं कि आजकल तो मच्छर भी डीडीटी से नहीं डरते। इसके विपरीत धारणा यह बन गई है कि जिसके घर छापा पड़ जाता है उसे बड़ा आदमी समझा जाने लगता है और बाजार में उसकी हैसियत बढ़ जाती है। जरूरत इसकी है कि समाज के शुद्धिकरण का जो भी अभियान छेड़ा जाए उसकी शुरुआत शुचिता से हो। शासन का प्रभाव जनमानस पर डालना है तो शासन तंत्र और शासकों को अपनी जड़ें टटोलनी होगी। यह तो होना चाहिए कि हर नागरिक या वर्ग को चोर कहना बंद हो जाए। (18 सितम्बर 1977 के अंक में ‘ईमानदार और बेईमानों की बिरादरियां’ आलेख से)
कालेधन की व्यवस्था
सरकार भी यह मानती है कि भारत में एक समानान्तर अर्थव्यवस्था चल रही है। इसका मतलब यह हुआ कि न केवल आयकर चुराकर कालाधन बटोरा जा रहा है बल्कि उस धन से पूरा कारोबार और घरबार चलाया जा रहा है। कालेधन की व्यवस्था सुविधाजनक भी है। मैं चाहूं तो कालेधन से कपड़ा, लोहा, सीमेंट, लकड़ी, शक्कर, अनाज और फल सस्ते दामों पर खरीद सकता हूं। निष्कर्ष यह निकला कि कालाधन सफेद पूंजी के मुकाबले ज्यादा मजबूत है और उसे बंद करने का सामर्थ्य सरकार में नहीं है। चुनाव में तो कालाधन ही काम आता है।
(कुलिश जी के आलेखों पर आधारित पुस्तक ‘दृष्टिकोण’ से)
गिरावट ऊपर से
य ह देखकर दर्द होता है और शर्म भी आती है कि जिन लोगों को नीतियां बनाने और अमल में लाने के लिए चुना जाता है उनका पूरा समय नहीं तो ज्यादातर समय तबादले कराने या रुकवाने में जाता है और शेष समय तथाकथित ‘जनसम्पर्क’ में। तहसील से लेकर सचिवालय तक कामकाजी आदमी फैसलों के इंतजार में चक्कर लगाते रहते हैं लेकिन फाइल एक मेज से दूसरी मेज तक पहुंचने का नाम नहीं लेती। जिस पर भी दफ्तर वालों की सारी ऊर्जा इस बात में खर्च हो जाती है कि काम में किस तरह से फच्चर फंसाया जा सकता है। प्रशासनिक सुधार आयोग में बड़े धुरंधर पंडित बैठे हुए हैं और बरसों से रिपोर्ट पर रिपोर्ट पेश करते आ रहे हैं लेकिन देश का यह साम्राज्यशाही प्रशासन टस से मस नहीं होना चाहता। वह भ्रष्ट भी है और निकम्मा भी। अनुभवी लोगों का तो यहां तक मानना है कि प्रशासन की कारगुजारियों में गिरावट ऊपर से आई है।
(कुलिश जी के अग्रलेखों पर आधारित पुस्तक ‘हस्ताक्षर’ से)
Updated on:
20 Nov 2025 01:07 pm
Published on:
20 Nov 2025 01:06 pm
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