
यह माना जाता है कि जो गीता के सार को समझ गया मानो उसका जीवन संवर गया। गीता में वे उपदेश समाहित हैं जो स्वयं भगवान कृष्ण ने अर्जुन को उस वक्त दिए जब वह रणक्षेत्र से विमुख हो रहा था। सही मायने में गीता एक ग्रंथ ही नहीं, बल्कि पग-पग पर लोगों के लिए मार्गदर्शक का काम करता है। श्रद्धेय कुलिश जी ने ३६ वर्ष पहले एक आलेख में गीता की महत्ता का जिक्र करते हुए इस बात पर चिंता जताई थी कि गीता के अर्थ को हम नहीं समझ पाए हैं। कहीं न कहीं गीता को समझने में हमारी त्रुटि रही है। दो दिन पहले आयोजित गीता जयंती के संदर्भ में यह आलेख आज भी सामयिक हैं।
गीता, संसार का श्रेष्ठतम शास्त्र है। विश्व के करोड़ों लोग गीता का नाम जानते हैं और लाखों लोग नित्य प्रति इस देश में इसका पाठ करते हैं। सहस्त्रोंजन ऐसे हैं, जिन्हें गीता कंठस्थ है। इस देश के जितने भी शास्त्रीय ग्रंथ हैं, जितने भी दर्शन हैं उनमें किसी की इतनी टीका नहीं हुई जितनी गीता की टीका हुई है। गीता पर कितनी ही संस्थाएं बनी हुई है। कितने ही संत, समाजसेवी इसी के लिए समर्पित हैं। गीता जैसा शास्त्र जिस देश में हो और मानव मात्र की यह श्रेष्ठतम विधि कही जाती हो उस देश की ऐसी गर्हित अवस्था हो गई हो यह एक आश्चर्यजनक ही बात है, यह विडम्बना ही है। गीता- जिसने अर्जुन जैसे क्लीव दशा में पहुंचे हुए व्यक्ति को महाभारत का विजेता बना दिया हो उस शास्त्र के हाथ में रहते हुए हमारी यह दशा क्यों है? हम दीन-हीन, निर्बल और सदैव प्रताडि़त क्यों हैं? हमें दुनिया में सभी मायने में पीछे समझे जाने वाला देश क्यों समझा जाता है? फिर गीता की उपादेयता, गीता की सार्थकता, गीता का अर्थ हमारे लिए क्या रह गया। गीता के ही अनुसार यह दु:खहरण जो ग्रंथ माना जाता है उससे दु:ख दूर क्यों नहीं हुए?
अवश्य ही कहीं न कहीं घोर व्यतिक्रम हो गया है। गीता के अर्थ को हम नहीं समझ पाए और यही कारण है कि हमारी यह गति है। यदि गीता के अंदर जो लिखा हुआ शब्द है, उसके मर्म को हम समझते हैं तो क्यों नहीं हम अर्जुन की अवस्था में पहुंच सकते और यदि हम नहीं पहुंच सकते तो समझ लीजिए या तो गीता में कहीं खोट है, या गीता के समझने में हमारी त्रुटि रही है। अभी तो हम वेद के नाम से ही बड़े भयभीत रहते हैं कि वेद पता नहीं क्या चीज है उसके नाम से ही दूर भागते हैं। उस पर मस्तक झुकाकर बैठ जाते हैं। लेकिन अवश्य ही कोई ऐसी बात है जो हमसे छिपी हुई है। हम उस पर नहीं पहुंच पाए। यह जो व्यतिक्रम हो गया, इतने शास्त्र के होते हुए भी, हम उसके अर्थ से, उसके मर्म से दूर होते चले गए। उसको हमें नए सिरे से अध्ययन में लाना होगा और पूरे देश की समग्र शक्ति से इसको अपने हाथ में लेना पड़ेगा।
शिक्षा में दीजिए शास्त्रों का ज्ञान
लेबोरेट्री में जितने भी प्रयोग होते हैं वह अनुभव है, विज्ञान नहीं है। विज्ञान तो दृष्टि है। जैसे हमारे ऋषियों ने विज्ञान दृष्टि के सहारे तारों का ज्ञान कर लिया। विज्ञान को पदार्थविद्या कह सकते हैं किन्तु विज्ञान नहीं। पदार्थ विद्या विज्ञान का क्षुद्र अंश है। अनुभव कर्मजनित होते हैं और कर्म परिवर्तनशील। अत: अनुभव भी परिवर्तनशील है। ज्ञान परिवर्तनशील नहीं है। विज्ञान कभी बदल नहीं सकता। दुनिया को भरमा रखा है इस विज्ञान नाम की चीज ने। वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है। हमारे वेद विज्ञान हैं। गीता विज्ञान से परिपूर्ण है।( कुलिश जी की आत्मकथ्य आधारित पुस्तक 'धाराप्रवाह' से )
काय सुखाय
गीता में भगवान कहै,
बिरथा काय सुखाय।
काया माया में बसूँ,
म्हनै पीड़ पहुँचाय।। 'सात सैंकड़ा' से
Updated on:
04 Dec 2025 01:07 pm
Published on:
04 Dec 2025 01:06 pm
बड़ी खबरें
View Allओपिनियन
ट्रेंडिंग
कर्पूर चंद्र कुलिश जन्मशती वर्ष
