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पाक में सैन्य दखल: नए संवैधानिक संशोधनों पर संयुक्त राष्ट्र की चिंता

सशस्त्र सेनाओं का किसी भी संस्था के प्रति उत्तरदायित्व समाप्त कर दिया गया है।

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अरुण जोशी, दक्षिण एशियाई कूटनीतिक मामलों के जानकार

फौज की अंगुलियों पर नाच रहे पाकिस्तान को मानवाधिकारों को कुचलने और सैन्य तंत्र को लाभ पहुंचाने के उद्देश्य से किए गए संवैधानिक संशोधनों के लिए वैश्विक स्तर पर कड़ी निंदा झेलनी पड़ रही है। संयुक्त राष्ट्र ने न्यायपालिका पर सैन्य दबाव और आम नागरिकों की पीड़ा तथा याचिकाएं सुनने की उसकी क्षमता पर लगाए जा रहे प्रतिबंधों को लेकर गंभीर आपत्ति दर्ज की है। यह स्थिति पाकिस्तान के मानवाधिकारों संबंधी ढोंग को न सिर्फ उजागर करती है, बल्कि अत्यंत खतरनाक दिशा की ओर संकेत भी करती है।


जिस देश में जवाबदेही का वजूद न हो और संवैधानिक संशोधनों के जरिए शासन के तीनों अंगों- विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका की शक्तियों का संतुलन समाप्त कर दिया जाए, वह पूरे क्षेत्र की स्थिरता को डांवाडोल करने की राह पर होता है। संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग ने दुनिया को बताया है कि पाकिस्तान में तानाशाही भयावह रूप धारण कर चुकी है, जहां न्यायपालिका को दबाकर सेना और रक्षा संस्थानों को हर तरह की जवाबदेही से परे कर दिया गया है। देश गहरे दलदल में धंसता जा रहा है। सशस्त्र सेनाओं का किसी भी संस्था के प्रति उत्तरदायित्व समाप्त कर दिया गया है। यहां तक कि सर्वोच्च न्यायालय भी अब केवल नाम का रह गया है, जिसकी कार्यपालिका और सेना को जवाबदेह ठहराने की क्षमता छीन ली गई है। संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार उच्चायुक्त वोल्कर टर्क ने इसी संदर्भ में पाकिस्तान पर तीखी टिप्पणी करते हुए इन घटनाओं को कड़ी निंदा का विषय बताया है।

जिनेवा में अपने बयान में टर्क ने कहा कि 26 अक्टूबर 2024 और 27 नवंबर 2025 को जल्दबाजी में पारित संवैधानिक संशोधन न्यायपालिका की स्वतंत्रता को गंभीर रूप से कमजोर करते हैं और सैन्य जवाबदेही तथा कानून के शासन के सम्मान पर गहरी चिंता पैदा करते हैं। टर्क ने चेताया कि पिछले वर्ष का नवीनतम संशोधन कानूनी समुदाय और व्यापक नागरिक समाज से बिना किसी सार्थक परामर्श या बहस के पारित कर दिया। ये संशोधन शक्तियों के पृथक्करण के मूल सिद्धांत के विरुद्ध है, जो कानून के शासन और मानवाधिकारों की सुरक्षा की बुनियाद है। टर्क का कहना है कि इन बदलावों से न्यायपालिका राजनीतिक हस्तक्षेप और कार्यपालिका के नियंत्रण के अधीन हो सकती है। इससे न्यायिक स्वतंत्रता की बुनियाद ही खतरे में पड़ जाएगी। यदि न्यायाधीश स्वतंत्र न हों तो वे मानवाधिकारों की रक्षा करने में असमर्थ होते हैं।


अक्टूबर 2024 में पारित 26वां संशोधन पाकिस्तान की न्यायिक व्यवस्था में बड़े बदलाव लेकर आया, विशेष रूप से न्यायाधीशों की नियुक्ति में। इसके प्रमुख प्रावधानों में मुख्य न्यायाधीश के लिए तीन वर्ष का निश्चित कार्यकाल तथा वरिष्ठतम तीन न्यायाधीशों में से संसद की समिति द्वारा मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति का नया तरीका शामिल है। इस संशोधन ने सुप्रीम कोर्ट के स्वत: संज्ञान के अधिकार समाप्त कर दिए और अदालतों की कार्यपालिका के निर्णयों पर प्रश्न उठाने की क्षमता भी सीमित कर दी। 13 नवंबर 2025 को पारित 27वां संशोधन और भी भयावह है। इसके माध्यम से संघीय संवैधानिक न्यायालय स्थापित किया गया है, जिसे संवैधानिक मामलों पर पूर्ण अधिकार दे दिए गए हैं। सुप्रीम कोर्ट अब केवल दीवानी और आपराधिक मामलों की सुनवाई करेगा अर्थात संवैधानिक मामलों पर उसका कोई अधिकार नहीं रहेगा।


संशोधन के तहत राष्ट्रपति, फील्ड मार्शल, एयर फोर्स मार्शल और एडमिरल ऑफ द फ्लीट को आजीवन दंडमुक्ति और गिरफ्तारी से सुरक्षा प्रदान करना जवाबदेही की अवधारणा का पूर्ण विनाश है। संयुक्त राष्ट्र की आलोचना पर पाकिस्तान के विदेश मंत्रालय ने उसकी गंभीरता को समझने के बजाय अहंकार भरी प्रतिक्रिया दी और संयुक्त राष्ट्र के आग्रह को 'निराधार' और 'भ्रमित आशंका बताया।' उसने दावा किया कि संविधान में संशोधन निर्वाचित प्रतिनिधियों का विशेषाधिकार है लेकिन वह यह बताना भूल गया कि ये संशोधन जनता की इच्छा से नहीं, बल्कि सेना के दबाव में लागू किए गए हैं, ताकि देश में उसकी सर्वोच्चता पर प्रश्न उठाने वाली हर आवाज को कुचल दिया जाए। नतीजतन, पाकिस्तान की जनता अब सरकारी और सैन्य निर्णयों के विरुद्ध न्याय पाने के अधिकार से भी वंचित हो चुकी है। यह स्थिति पाकिस्तान को गहरे संकट में धकेलती है।