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जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ती नजर आ रही केंद्र सरकार

केंद्र और राज्यों के लिए टीके की अलग दर औचित्यहीन।एक राष्ट्रीय नीति बनानी चाहिए ताकि टीका पूरे राष्ट्र में एक कीमत पर मिले और छह माह में सम्पूर्ण जनसंख्या को दोनों डोज लगाई जाएं।

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जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ती नजर आ रही केंद्र सरकार

जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ती नजर आ रही केंद्र सरकार

गौरव वल्लभ

पिछला वर्ष उन लोगों के लिए हवा के झोंके की तरह गुजरा है जो कोरोना के घातक प्रकोप के कारण प्रभावित नहीं हुए हैं। दूसरों के लिए, यह पीड़ा, निराशा और असहायता से भरा रहा है। मजबूत नेतृत्व संकट की इस घड़ी में असहाय नहीं हो सकता। अगर हम मौजूदा परिस्थितियों का आकलन गैर राजनीतिक पैमाने पर भी करें तो केंद्र सरकार अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ती नजर आ रही है।

भारत के संघीय ढांचे का मैं हमेशा से समर्थक रहा हूं और आपदा में इसी ढांचे के सुचारु ढंग से काम करने के कारण हमने एक देश के तौर पर विजय भी प्राप्त की है। परन्तु आज केंद्र के गैर सक्रिय दृष्टिकोण के कारण राज्यों के बीच सहकारी संघवाद के बजाय प्रतियोगी संघवाद की स्थिति बन गई है। हमारे टीकाकरण अभियान को 100 दिन से अधिक बीत चुके हैं और हम अभी तक सिर्फ 1.5त्न आबादी को दोनों डोज लगा पाए हैं। यूरोप में कुछ माह पूर्व कोरोना की दूसरी लहार के कहर से हमें सीख लेने की जरूरत थी, जबकि विशेषज्ञों ने सितम्बर-अक्टूबर में ही सरकार को अवगत करा दिया था कि कोरोना की दूसरी लहर नजदीक है।

पिछले साल के तुलना में इस साल हमारे पास एक मजबूत हथियार था - टीके का। विगत एक वर्ष में केंद्र का हर एक कदम सक्रिय होने के बजाय प्रतिक्रियात्मक रहा है। जब कोरोना की दूसरी लहर लाजिमी थी तो या तो अन्य टीके बनाने वाली कंपनियों को भी समय रहते अनुमोदन देना चाहिए था या फिर सीरम इंस्टिट्यूट और भारत बायोटेक की उत्पादन क्षमता बढ़ानी चाहिए थी।

आज दोनों की उत्पादन क्षमता देखें तो 11 से 12 करोड़ डोज प्रति माह की है। इस दर से हमें पूरी जनसंख्या को दोनों डोज देने में कम से कम दो साल का वक्त लगेगा। केंद्र सरकार इस आपदा की शुरुआत से राज्यों और जनता को इस वायरस से लडऩे के निर्देश जारी करती रही है। कौन-सा टीका लेना है, किससे लेना है, कितना लेना है और राज्यों को कितना देना है - यह सब निर्णय केंद्र के होते हैं। अचानक से राज्यों को यह बताया जाता है कि 45 साल की आयु से कम आबादी के टीकाकरण का जिम्मा या तो राज्य उठाएं या जनता खुद। केंद्र, राज्य और जनता के टीकों का दाम भी अलग है। आपदा के समय क्या केंद्र को कीमतों का नियंत्रण नहीं करना चाहिए था? जब केंद्र को एक टीका 150 रुपए में मिल रहा है तो क्या राज्यों को भी टीका उसी कीमत पर दिलाने के लिए केंद्र को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए?

टीके के अलावा हमारी तैयारी पर भी सवाल उठ रहे हैं। पिछले वर्ष पीएम केयर्स फंड बनाया गया। अब जबकि जनता त्राहिमाम कर रही है तो पीएम केयर्स फंड के जरिये 551 ऑक्सीजन प्लांट बनाने के निर्देश दिए गए हैं। इस पहल का मैं स्वागत करता हूं लेकिन क्या यह कदम पहले नहीं उठाया जा सकता था। सरकार की दूरदृष्टि और कोरोना से लडऩे की प्रतिबद्धता इस बात से ही जाहिर होती है कि स्वास्थ्य बजट में कोरोना से लडऩे के लिए सिर्फ एक प्रावधान किया गया था - 35000 करोड़ का आवंटन टीकाकरण अभियान के लिए। सिर्फ 10 प्रतिशत आबादी को डोज लगी हैं और उसका भी जिम्मा अब राज्यों और जनता पर डाल दिया गया है।

टीकाकरण अभियान को सुचारु और प्रभावी ढंग से चलाने का हमें अनुभव रहा है। पोलियो के सफल अभियान से हमें सीख लेते हुए एक राष्ट्रीय नीति बनानी चाहिए जिससे कि टीका पूरे राष्ट्र में एक कीमत पर मिले और छह महीने के अंदर सम्पूर्ण जनसंख्या को दोनों डोज लगाई जाएं। पीएम केयर्स फंड का इस्तेमाल तत्काल प्रभाव से ऑक्सीजन आपूर्ति, अस्पतालों के ढांचे को सुधारने, वेंटिलेटर्स की संख्या बढ़ाने के लिए किया जाना चाहिए।

(लेखक कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं)