26 दिसंबर 2025,

शुक्रवार

Patrika LogoSwitch to English
home_icon

मेरी खबर

icon

प्लस

video_icon

शॉर्ट्स

epaper_icon

ई-पेपर

पहचान पर बवाल

अभी तलवारें इस बात पर खिंच रही हैं कि क्या हम अपने ही नागरिकों को शरणार्थी मान लेंगे? लेकिन जो हुआ और हो रहा है वह वोटों की राजनीति है।

2 min read
Google source verification

image

Sunil Sharma

Aug 01, 2018

opinion,work and life,rajasthan patrika article,

work and life, opinion, rajasthan patrika article

असम सरकार ने अपने नागरिकता रजिस्टर का अन्तिम प्रारूप जारी कर दिया। छह माह पहले जारी शुरुआती प्रारूप में, असम की आधी आबादी रजिस्टर से बाहर थी। अन्तिम प्रारूप में भी ४० लाख लोग इससे बाहर हैं। असम की सडक़ों से लेकर देश की संसद तक बहस चल रही है कि अब इन ४० लाख लोगों का क्या होगा? हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने इस रिपोर्ट के आधार पर किसी भी कार्रवाई पर फिलहाल रोक लगा दी है। अभी यह भी तय नहीं है कि ये सब कौन हैं? कहां से आए हैं? इनमें से कितने बंगाली, बिहारी या देश के अन्य राज्यों से हैं? या फिर कितने बांग्लादेशी अथवा रोहिंग्या हैं? यह भी नहीं पता कि इनमें से कितने किस धर्म के हैं? लेकिन अफवाहों के बाजार खूब गर्म हैं?

वोटों की मण्डियों में गरमागर्म चर्चाएं चल रही हैं। कोई कह रहा है कि सरकार इन्हें छोडऩे वाली नहीं है। पहचान लिया है तो अब देश के बाहर करके ही दम लेगी। कोई कह रहा है कि यह इतना आसान काम नहीं है। कहां भेजोगे, कैसे भेजोगे और किस आधार पर भेजोगे? कौन सा देश होगा जो इन्हें पलक-पांवड़े बिछाकर वापस ले लेगा? अभी तो तलवारें इस बात पर खिंच रही हैं कि क्या हम अपने ही देश में, अपने ही नागरिकों को शरणार्थी मान लेंगे? इन सब बातों में कितना सच है और कितनी राजनीति, यह तो सब करने वाले जानें लेकिन इतना तय है कि इस मामले में अब तक जो हुआ है और आज जो हो रहा है, सब वोटों की राजनीति का अभिन्न हिस्सा है। इसी तरह आगे जो होगा, उसके भी वोटों की राजनीति से प्रेरित नहीं होने की बहुत कम संभावना है। असम के नागरिकता रजिस्टर विवाद से अलग बात करें तो आज कौन नहीं जानता कि देश में लाखों नहीं, करोड़ों बांग्लादेशी रह रहे हैं। कौन नहीं जानता कि हमारे सुरक्षा बलों के गिने-चुने ‘जयचंदों’ की मदद से ही देश में घुसपैठ होती है। आज देश का शायद ही कोई ऐसा राज्य हो, जहां वे नहीं रह रहे हों। एक आता है और सौ को ले आता है।

असम की बात करें तो १९७१ में शरणार्थियों के नाम पर जितने आए होंगे, उससे दस गुणा बढ़ गए। तब क्या देश की, असम की सरकारें इसके लिए दोषी नहीं हैं? और तो और असम गण परिषद के प्रफुल्ल कुमार महंत जो सिर्फ असमी-गैर असमी के नाम पर सालों चले हिंसक आन्दोलन के बाद दो बार असम के मुख्यमंत्री बने, उन्होंने भी कुछ नहीं किया। उनकी तो मांग ही असम से गैर असमियों की पहचान कर उन्हें वहां से निकालने की थी। उसी पर १९८५ में उनका केन्द्र की राजीव सरकार से समझौता हुआ। दस साल के सत्ता मोह में, वे भी अपनी ही मांग को भूल गए? अब जब एक बार फिर यह मुद्दा गरमाया हुआ है तब सबसे पहले केन्द्र और असम की सरकारों के साथ देश के तमाम राजनीतिक दलों को यह तय करना चाहिए कि, वे इस मुद्दे पर करना क्या चाहते हैं? आज भी हमारी सीमा से चलकर बांग्लादेशी राजस्थान तक पहुंच रहे हैं तो कैसे? जरूरत आने के नए रास्तों को बंद कर पुरानों पर आग लगाने या चुनावी भुट्टे सेंकने की नहीं, कोई सर्वसम्मत व्यावहारिक समाधान निकालने की है।