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संसद की वह रिपोर्ट दुखद और चिंताजनक है, जो यह बताती है कि बीमे के १५१६७ करोड़ रुपये का कोई दावेदार नहीं है। यह वाक्य अपने आप में अनुदार और अलोकतांत्रिक है। हर तरह के दस्तावेज या प्रमाणपत्र लेने के बाद बीमा करने वाली कंपनियां और उन पर वरदहस्त रखने वाली सरकार को दरअसल कहना यह चाहिए कि हम बीमे के दावेदारों या हकदारों को खोज नहीं पा रहे हैं। किसी भी लोक कल्याणकारी सरकार की नीति में यह होना चाहिए कि वह बीमे के दावेदारों की खोज के पुख्ता तौर-तरीके लागू करे। बीमे के पैसे पर जिसका हक है, उसे खोज-खोजकर भुगतान करना चाहिए, तभी लोगों को यह लगेगा कि बीमा सेवा का एक जरूरी माध्यम है।
अभी जो आर्थिक स्थितियां या नीतियां हैं, उनमें बीमे को व्यवसाय बना दिया गया है, इसीलिए सीधे-सादे हितग्राहियों को भुला दिया जाता है। आज बीमा कराना जितना आसान है, उतना ही कठिन है बीमे की राशि या लाभ वापस प्राप्त करना। बीमा क्षेत्र में ऐसे अनेक अमानवीय लोग कार्यरत हैं, जो चाहते नहीं कि बीमा लाभ उसके उचित दावेदारों या हकदारों को आसानी से मिले। बीमा लाभ लेने गए जरूरतमंद के साथ ऐसा व्यवहार किया जाता है, मानो वह बीमा कंपनी का दुश्मन हो।
ऐसे न जाने कितने दुखी दावेदार होंगे, जिन्हें बीमा कंपनियों के अमानवीय कर्मचारियों ने दुव्र्यवहार कर भगा दिया होगा। अमरीका में ६०० में से केवल १ व्यक्ति दावे के लिए आगे नहीं आता, जबकि भारत में ऐसा कोई आंकड़ा उपलब्ध नहीं है। अमरीका में बची हुई बीमा राशि चिंता का विषय नहीं है, लेकिन भारत में खतरे की घंटी बज चुकी है। पिछले १० वर्ष में बची हुई बीमा राशि में ११ गुणा से ज्यादा इजाफा हुआ है, और इससे भी चिंताजनक बात यह कि विगत ९ महीने में ही इस राशि में ३१६७ करोड़ रुपए की बढ़त हुई है। सबसे बुरा हाल भारतीय जीवन बीमा निगम का है - पिछले ९ महीने में ही उसका आंकड़ा ६००३ करोड़ रु. से बढक़र १०५०९ करोड़ रु. हो गया है। बेशक, इस बीमा निगम को अपने ग्राहकों के प्रति ज्यादा संवेदनशील होना चाहिए। अभी लगता है, कई बीमा शर्तें बनाई ही इसलिए गई हैं कि किसी को बीमा लाभ देना न पड़े। बीमा शर्तों के निंदनीय बोझ को तत्काल तार्किक और सभ्य बनाना चाहिए।
बीमे की यह बची हुई राशि अगर बढ़ती जा रही है, तो यह हमारी अर्थव्यवस्था में बढ़ते अविश्वास को भी दर्शा रही है। इसके अलावा पीपीएफ और ईपीएफ व अन्य अनेक सेवा साधन हैं, जिनमें हजारों करोड़ रुपए ऐसे हैं, जिनके दावेदार-हकदारों को खोजा नहीं जा रहा है। ऐसे लोग हमारे ही राष्ट्र परिवार के सदस्य हैं, जिन्होंने बीमा कंपनियों पर विश्वास किया था, उन्हें उनका विश्वास सद्व्यवहार से लौटना पड़ेगा। इस बीच खुशी की बात यह है कि एक-दो ऐसी निजी बीमा कंपनियां भी हैं, जिनके खाते में ऐसी बकाया राशि पहले की तुलना कम हुई है। ऐसी अच्छी कंपनियों से बीमा सेवा विस्तार के उचित तौर-तरीके सीखने की जरूरत है। अच्छा है, केन्द्र सरकार ने सुधार का इरादा जताया है, लेकिन लोगों को लाभ तभी मिलेगा, जब सरकार की कथनी और करनी का अंतर मिटेगा।

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