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सरकारी सुस्ती से संकट में पूंजीवाद की विश्वसनीयता

इस साल 12 बिलियन खुराकों के उत्पादन की क्षमता।महामारी के इस क्षण में, जब टीकों की सख्त जरूरत है, हमारी क्षमता बर्बाद हो रही है और नवाचार से भी किसी को लाभ नहीं पहुंच रहा।

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सरकारी सुस्ती से संकट में पूंजीवादी की विश्वसनीयता

सरकारी सुस्ती से संकट में पूंजीवादी की विश्वसनीयता

मिहिर शर्मा, स्तम्भकार

वर्ष 2008 की आर्थिक मंदी ने जिस तरह वित्तीय भूमंडलीकरण पर सवाल उठाए, 2020 में कोरोना महामारी के शुरुआती महीनों की उथल-पुथल, अस्त-व्यस्तता से जटिल वैश्विक आपूर्ति शृंखला पर विश्व की निर्भरता को लेकर सवाल उठे। बीते कुछ माह में, जब विश्व के कुछ हिस्सों में वैक्सीनेशन शुरू हुआ और कुछ हिस्सों में बाधित, तो वैश्वीकरण और पूंजीवादी व्यवस्था को लेकर संदेह गहराया है। ऐसे में जब तक सरकारें सक्रिय नहीं होंगी, पूंजीवाद के लिए विश्वसनीयता का संकट पैदा हो सकता है।

विनियमित बाजारों के पक्ष में बड़ा तर्क यह है कि वे किसी अन्य प्रणाली की तुलना में उत्पादन का बेहतर प्रंबधन करते हैं। माना जाता है कि पूंजीवादी विनियमित बाजार, मांग और आपूर्ति का सही संतुलन कायम करते हैं और उचित लाभ देते हैं। लेकिन अभी मुद्दा है अक्षमता और पूंजीवाद से उम्मीद की जाती है कि वह इससे दूर रहे। पर महामारी के ऐसे वक्त में, जब कोरोना वैक्सीन की सख्त जरूरत है, हमारी क्षमता बर्बाद हो रही है और नवाचार से भी किसी को लाभ नहीं मिल रहा है। सभी अनुमान एक साथ मिला लिए जाएं तो नतीजा निकलता है कि इस वर्ष 12 बिलियन खुराक का उत्पादन किया जा सकता है। लेकिन हकीकत आसपास भी नहीं है। उपलब्ध खुराकें समृद्ध राष्ट्रों ने हड़प ली हैं।

तो क्या, ज्यादा खुराकों का उत्पादन किया जा सकता है? बांग्लादेश की एक कंपनी का कहना है कि यदि उसे लाइसेंस और तकनीक दी जाए तो वह हर वर्ष 600 से 800 मिलियन खुराक तैयार कर सकती है। यदि इसे वास्तविकता से ज्यादा अनुमान मानें तो भी कई ऐसी कंपनियां है जो कतार में हैं और नियामकों एवं पेटेंटधारकों से हरी झंडी के इंतजार में हैं। वैक्सीन निर्माताओं का नेटवर्क, जिसमें विकासशील देशों के 41 सदस्य हैं, अकेले हर वर्ष तीन से चार बिलियन अन्य टीकों का उत्पादन करता है। हालांकि, बहुत सारे देशों ने मांग की है कि महामारी के दौरान कोविड बीमारी से जुड़ी दवाओं और वैक्सीन के लिए बौद्धिक सम्पदा अधिकार (आइपीआर) को आवश्यक रूप से निलम्बित किया जाए। यह लुभावना और संतोषजनक समाधान प्रतीत होता है, लेकिन जैसा कि मेरे सहयोगी डेविड फिकलिंग कहते हैं- यदि नई वैक्सीन बनाना आइपीआर नियमों की अनदेखी करने जितना सरल होता, विकासशील देश 'कम्पल्सरी लाइसेंसÓ जारी कर यही कर रहे होते, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। इसकी वजह है हर नए लाइसेंस से जुड़ी नई लोकेशन और 'गुड मैन्युफैक्चरिंग प्रैक्टिसिस' को सावधानीपूर्वक जांचने की। टेकेडा वैक्सीन्स इंक के राजीव वेंकैया ट्विटर पर लिखते हैं - वैक्सीन निर्माण का हर पहलू कड़ी निगरानी से गुजरता है। क्वालिटी कंट्रोल पर 70 फीसदी समय खर्च होता है। और यह चुनौती क्षमता विस्तार के लिए उत्पादन संबंधी हर साझेदारी से जुड़ी है। यदि बड़ी फार्मा कंपनियां लाइसेंस जारी करने के लिए स्वैच्छिक कदम उठाती हैं और तकनीकी जानकारी कई उत्पादकों के साथ साझा करती हैं, तो सरकारों को मदद के लिए आगे आना होगा। विशेष रूप से समृद्ध राष्ट्रों को विचार करना चाहिए कि वे किस तरह विकासशील देशों के लिए सुविधाएं बढ़ा सकते हैं ताकि वे लाइसेंस के तहत टीके बना सकें। विकासशील देशों की सरकारों को विनियमन और बौद्धिक सम्पदा के लिए अपनी प्रतिबद्धता को मजबूत करना चाहिए ताकि उनके खुद के निर्माता, लाइसेंस साझेदारों की तरह आकर्षक दिखें।

यदि दोनों पक्ष इस चुनौती से नहीं निपटते तो सारी दुनिया देखेगी कि क्षमता की बर्बादी और बाजार की विफलता की वजह यही सिस्टम है। विश्व व्यापार के नियम, बौद्धिक सम्पदा के प्रति मौलिक सम्मान के साथ और बहुत कुछ अधर में है। जाहिर है त्वरित प्रतिक्रिया के अभाव में पूंजीवाद की छवि को 2008 या 1929 के मुकाबले 2021 में गहरी ठेस लग सकती है।
ब्लूमबर्ग