
गुजरात के पटाखा कारखाने में हुए विस्फोट ने फिर एक दर्दनाक सवाल खड़ा कर दिया है कि क्या हमारे लिए इंसानी जिंदगियों की कीमत मुनाफे से कमतर हो गई है? बीस मजदूरों की मौत को महज 'दुर्घटना' कहकर टाल देना उस लापरवाह व्यवस्था की निष्ठुरता को दर्शाता है, जो कागजों पर तो सुरक्षा मानकों की दुहाई देती है, लेकिन हकीकत में भ्रष्टाचार और उदासीनता के चलते मेहनतकशों को मौत के मुंह में धकेल देती है। हादसों में जान गंवाने वाले रोजी-रोटी की तलाश में मध्यप्रदेश से वहां पहुंचे थे। ज्यादातर मृतकों के परिवार कर्ज के बोझ से दबे हुए थे। आर्थिक भार कम होने का सपना इन्हें अपने घर से दूर ले गया था। उद्योगों का विकास जरूरी है, लेकिन सवाल यह है कि क्या यह विकास मजदूरों के खून से सींचा जाना चाहिए? अमरीका और यूरोप में जहां पटाखा उद्योग को अत्यंत कड़े नियमों के दायरे में रखा गया है, वहीं भारत में यह अब भी 1884 के इंडियन एक्सप्लोसिव एक्ट और 2008 के एक्सप्लोसिव रूल्स के तहत संचालित होता है। ये पुराने और अप्रासंगिक कानून आज के औद्योगिक वातावरण और सुरक्षा आवश्यकताओं के लिए नाकाफी हैं।
पटाखा उद्योग 2000 करोड़ रुपए से अधिक का कारोबार करता है और लाखों लोगों की रोजी-रोटी इससे जुड़ी है, लेकिन इन फैक्ट्रियों में काम करने वालों की सुरक्षा सुनिश्चित करने की कोई ठोस व्यवस्था नहीं। अवैध फैक्ट्रियां धड़ल्ले से चलती हैं, सुरक्षा मानकों की खुलेआम धज्जियां उड़ाई जाती हैं और हर हादसे के बाद प्रशासन जांच और मुआवजे की रस्म अदायगी करके अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाता है। देखा जाए तो यह लापरवाही ही नहीं, बल्कि एक अपराध है और इसके दोषियों को कानून के कठघरे में खड़ा किया जाना चाहिए। इस समस्या की एक और गहरी जड़ है- मजदूरों का पलायन। इन इकाइयों में काम करने वाले अधिकतर लोग वे हैं, जिन्हें अपने ही राज्य में रोजगार नहीं मिलता। ग्रामीण भारत में कृषि के अवसर घटते जा रहे हैं, सरकारी योजनाओं में भ्रष्टाचार व्याप्त है और औद्योगिक विकास का असंतुलन इतना गहरा है कि कुछ ही राज्यों में रोजगार केंद्रित हैं, जबकि बाकी राज्य पिछड़ते जा रहे हैं।
मजबूरी में लाखों मजदूर अपने घर-परिवार को छोड़कर दूसरे राज्यों में जाकर असुरक्षित और अमानवीय हालात में काम करने को मजबूर होते हैं। अगर हम वास्तव में इंसानी जिंदगियों को महत्त्व देते हैं, तो अब सिर्फ शोक व्यक्त करने से काम नहीं चलेगा। सुरक्षा नियमों का कड़ाई से पालन हो, अवैध फैक्ट्रियों पर रोक लगे, मजदूरों को उनके अधिकारों के प्रति जागरूक किया जाए और दोषियों को कठोरतम सजा दी जाए। अन्यथा, यह सिलसिला जारी रहेगा और हम ऐसी ही त्रासदियों पर मातम मनाने के लिए मजबूर रहेंगे। पटाखा फैक्ट्री में आग की यह पहली घटना नहीं है और अगर ठोस कदम नहीं उठाए गए तो यह आखिरी भी नहीं होगी।
Published on:
02 Apr 2025 10:11 pm
बड़ी खबरें
View Allओपिनियन
ट्रेंडिंग
