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समाज और परिवार : बच्चों के विकास के लिए पिता का साथ भी जरूरी

भारतीय न्यायिक व्यवस्था माताओं को कस्टडी देने की अवस्था में पिताओं को अपने बच्चों से मिलने, बात करने और समय बिताने के लिए निश्चित समयावधि का अधिकार देती है।

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समाज और परिवार : बच्चों के विकास के लिए पिता का साथ भी जरूरी

समाज और परिवार : बच्चों के विकास के लिए पिता का साथ भी जरूरी

ऋतु सारस्वत (समाजशास्त्री और स्तम्भकार)

बीते दिनों जब टोक्यो ओलंपिक में दुनिया भर के खिलाड़ी हार और जीत के लिए संघर्ष कर रहे थे, इसी बीच खेल के मैदान के बाहर फिकोट भूख हड़ताल पर बैठा था। फ्रांस मूल के फिकोट का यह संघर्ष अपने बच्चों से मिलने के लिए था, जिन्हें उसकी पत्नी तीन साल पहले ले कर चली गई थी। जापानी कानून में बच्चों की कस्टडी मां को ही दी जाती है और इसी के चलते हर साल करीब 1.5 लाख बच्चे अपने पिता से अलग हो जाते हैं। ऐसे कितने ही फिकोट भारत में भी हैं। फर्क इतना है कि भारत का कानून तलाकशुदा दंपती में से किसी भी एक को बच्चों की कस्टडी दे सकता है। मुश्किल यह है कि पन्नों में लिखी ये धाराएं वास्तविकता के धरातल पर यथार्थ रूप कम ही ग्रहण कर पाती हैं।

वर्ष 2012 में ठाणे पारिवारिक न्यायालय (मुम्बई) में सूचना के अधिकार के तहत प्राप्त जानकारी के अनुसार समय विशेष में दायर 83 बच्चों की कस्टडी की याचिकाओं में से केवल दो ही पिताओं को बच्चों की कस्टडी मिली। कारण स्पष्ट है कि न्यायालय के समक्ष भी मां की भावनाओं को इतने विराट रूप में प्रस्तुत किया जाता है कि पिता का संपूर्ण अस्तित्व ही गौण हो जाता है। भारतीय न्यायिक व्यवस्था माताओं को कस्टडी देने की अवस्था में पिताओं को अपने बच्चों से मिलने, बात करने और समय बिताने के लिए निश्चित समयावधि का अधिकार देती है, पर क्या वाकई ऐसा हो पाता है? जो रिश्ते कड़वाहट से भरे अलग होने को आतुर हों, वे कैसे सहजता से उन भावनाओं को संबल देंगे, जिनसे किसी दूसरे पक्ष को सुकून और खुशी मिल सके। वास्तविकता में अलगाव की स्थिति में पिताओं के लिए अपने बच्चों से मिल पाना किसी चुनौती से कम नहीं होता।

मूल समस्या यह है कि अभी तक बच्चों के विकास पर जितने भी शोध हुए हैं, वे सभी मां की भूमिका तक ही केंद्रित थे। 1997 में डेबोरा और लेस्ली वार्कलेन ने अपनी किताब 'कंस्ट्रक्टिंग फादरहुड' में पिताओं की भूमिकाओं को संकीर्णता के दायरे में बांधने को लेकर तमाम मिथकों की चर्चा की, परंतु 2014 में प्रकाशित 'डू फादर्स मैटर- व्हाट साइंस इज टेलिंग ***** अबाउट पेरेंट्स वी हैव ओवरलुक्ड' में पाल रायबर्न ने उन तमाम बिंदुओं पर वैज्ञानिक शोध के बाद प्रकाश डाला, जिनके बारे में किसी ने भी गंभीरता से विचार नहीं किया था। रायबर्न ने किताब में चर्चा की कि द्वितीय विश्व युद्ध में यूएस और नॉर्वेजियन के जिप बच्चों के पिता युद्ध में मारे गए थे, उन बच्चों को परिपक्व होने पर सामाजिक संबंधों को बनाने में खासी मुश्किलों का सामना करना पड़ा। यही नहीं रायबर्न ये भी बताते हैं कि पिता अपने बच्चों के जीवन में सुरक्षा और दयालुता का भाव लाते हैं, जो एक बच्चे के सामाजिक और मानसिक विकास के लिए बेहद आवश्यक है।

ध्यान देने योग्य बात सिर्फ यही नहीं है, बल्कि इतना ही महत्त्वपूर्ण एक सच और भी है, जिसकी चर्चा इजरायल की शोधकर्ता रूथ फील्डमेन ने की। यह शोध बताता है कि जिन बच्चों की परवरिश पिता की देखरेख में होती है, आगे चलकर उन्हें समाज में अपने बर्ताव को लेकर बहुत दिक्कत नहीं होती है। क्या ये तमाम शोध इस ओर इशारा नहीं कर रहे कि अब समय आ गया है कि इस विषय पर गंभीरता से चर्चा की जाए और उस कानून को अमलीजामा पहनाए जाए, जिसकी सिफारिश भारत के विधि आयोग ने अपनी 257 वीं रिपोर्ट में 'संरक्षक और प्रतिपाल्य' ( गार्डियन एंड वार्ड्स एक्ट 1890) में सुधार करने के लिए 'जॉइन्ट कस्टडी' के प्रावधान को जोडऩे के संबंध में की थी।a