Gulab Kothari Article: चन्द्रमा : एक वैदिक परिप्रेक्ष्य चन्द्रमा को सर्वथा काला होने के कारण ही कृष्ण कहते हैं। चन्द्रमा सोम पिण्ड है, सोम परमेष्ठी की वस्तु है और परमेष्ठी में भूतज्योति का सर्वथा अभाव है। चन्द्रमा शुक्ल प्रतीत होता है किन्तु ध्यान से देखने पर उसका कृष्णत्व प्रकट हो जाता है।
हम पैदा हुए चन्द्रमा से, पुन: जन्म हुआ चान्द्रमन से। जीवन का सारा वैभव भी चन्द्रमा से और चान्द्र-मन से। यदि मन नहीं हो तो हमारे बुद्धि, महान्-अव्यक्त आदि कुछ नहीं कर सकते। सम्पूर्ण सृष्टि में एक ही पुरुष और एक ही मन होता है। मन पर ही विज्ञान प्रतिष्ठित है। मन पर विज्ञान-सूर्य का प्रतिबिम्ब पड़ता है। इसी के दर्शपूर्णमास* से महान में त्रिगुण भाव पैदा होता है। त्रैगुण्य महान ही चिदात्मा* की योनि है। चिदाभास* नहीं हो तो कुछ भी नहीं।
इन्द्रियां मन से जुड़कर ही विषय-भोगों में समर्थ होती हैं। विषय ज्ञान में प्रज्ञामात्रा-प्राणमात्रा-भूतमात्रा तीनों रहते हैं। मन में सोम-चित्-प्राण तीन कलाएं हैं। चिदंश से प्रज्ञामात्रा, सोमांश से भूतमात्रा और प्राणांश से प्राणमात्रा पर मन का अनुग्रह होता है। बिना मन के भोग नहीं, बिना अन्न के शरीर नहीं, बिना शरीर के...!
इस चान्द्रमन को प्रज्ञान कहते हैं। सभी इन्द्रियां अपने-अपने रूप-रस-गंधादि विषयों को ही भोग सकती हैं। यही इनका इन्द्रियत्व है। भोग भी ज्ञानाधारित होता है। कोई ऐसा ज्ञान तत्त्व है जिसके नियंत्रण में ये इन्द्रियां भोग कर पाती हैं। उसी ज्ञानसत्ता का नाम प्रज्ञानमन है। यह सब में है, इसका विषय नियत नहीं है। इसे सर्वेन्द्रिय मन भी कहते हैं। इनका सोम भाग चिदंश से युक्त रहता है। प्राणेन्द्र-प्रज्ञा-सोम की समष्टि है प्रज्ञान मन। यही अन्नमय मन ही अव्यक्त-महत्-विज्ञान-शरीर-इन्द्रियां-शरीर के देवता-भूत-शरीर के लोक आदि सबकी संभूति का कारण है।
संभूति और विनाश
संभूति-विनाश पर विज्ञान दृष्टि से उपनिषद् में तीन मंत्र हैं- प्रथम मंत्र प्रज्ञानात्मा का स्वरूप बतलाता है। दूसरा मंत्र आत्म-स्वरूप के विरुद्ध जाने वालों की अधोगति बताता है। तीसरा आत्मस्वरूप का प्रतिपादन करता है।
अन्यदेवाहु: संभवादन्यदाहुससंभववात्।
इतिशुश्रुम धीराणां ये नस्तद्विचचक्षिरे।।1।।
(ई.उ. 3 मण्डल)
अन्धं तम: प्रविशन्ति येऽसंभूतिमुपासते।
ततो भूय इव ते तमो य उ संभूत्यां रता:।।2।।
(ई.उ. 11वां मण्डल)
संभूतिं च विनाशं य यस्त द्वे दोभयं सह।
विनाशेन मृत्युं तीर्त्वा संभूत्यामृतमश्नुते।।3।।
(ई.उ. 14वां मण्डल)
1. प्रज्ञान आत्म तत्त्व संभव और असंभव दोनों से भिन्न है। दोनों भाव तो दृष्ट हैं। दोनों आत्मा के धर्म नहीं हैं। चिदंश न उत्पन्न होता है, न मरता है। रस-रूप आत्मा के अनुग्रह से बलों की ही संभूति/असंभूति होती हैं। दोनों बलों के ही धर्म हैं। संभूति-असंभूति प्रज्ञानात्मा के आधार पर ही होती है। मूल में आत्मा रस-बल की समष्टि है।
2. सत्तारस स्वस्वरूप में एक है। बल नानारूप है- सत्तारस से पृथक् है। रस से अनुग्रहीत होकर एकीभाव में आता है। यही संभूति है। ‘रस बलयो: सदसतो:-एकीभाव: ही संभूति है। बल आवरण है- तम है। जो असंभूति रूप केवल बल भाग की ही उपासना करते हैं, वे अन्धतम में रहते हैं। शून्य भाव ही अन्धकार है। बल असत् (नास्ति-शून्य) भाव है। केवल असत् के उपासक असत् बन जाते हैं। जब तक बल का सहारा नहीं लिया जाता, तब तक रस भी अनुपाख्य* तम है। यह तम बलतम से भी गहरा है। बल संसार का स्वरूप है। इसकी उपासना से आवरण रूप सम्पत्ति तो प्राप्त कर लेता है। विशुद्ध रस रूप संभूति का उपासक न इधर का रहता, न उधर का। यही ‘भूयान्धकार’ है।
3. विद्वान संभूति और विनाश को एक बिन्दु पर देखता है। मृत्यु ही अमृत प्राप्ति का साधन है। अत: दोनों के समुचित रूप की उपासना करनी चाहिए।
सोम पिण्ड का प्रकाश सूर्य से
चन्द्रमा को आकाश (विहायस) में रहने से वैहायस कृष्ण कहते हैं। चन्द्रमा को सर्वथा काला होने के कारण ही कृष्ण कहते हैं। चन्द्रमा सोम पिण्ड है, सोम परमेष्ठी की वस्तु है और परमेष्ठी में भूतज्योति का सर्वथा अभाव है। चन्द्रमा शुक्ल प्रतीत होता है किन्तु ध्यान से देखने पर उसका कृष्णत्व प्रकट हो जाता है। स्वयंभू सत्य का नाम ही कृष्ण है, यही अव्यय है। स्वयंभू ही सत्यलोक से परमेष्ठी मण्डल में, परमेष्ठी से सूर्य में, सूर्य से चन्द्रमा में, चन्द्रमा से पृथ्वी में और पृथ्वी द्वारा जीवों में आता है। जीवात्मा उसी सत्य का अंश है। कृष्ण गीता में कहते हैं-ममैवांशो जीवलोके जीवभूत: सनातन:।
पृथ्वी से सूर्य तक होने वाला यज्ञ ‘संवत्सर-यज्ञ’ कहा जाता है। इस यज्ञ में 21वें अहर्गण* पर सूर्य है। जिसमें पारमेष्ठॺ-सोम की आहुति होती रहती है। इसी अग्नीषोमात्मक यज्ञ से सारे विश्व का निर्माण हो रहा है। इसी यज्ञ से विश्व प्रतिष्ठित है। यज्ञ में अध्वर्यु-होता-उद्गाता-ब्रह्मा-ये चार ऋत्विक्* होते हैं। इस प्रकृति-यज्ञ में अध्वर्यु वायु है। पार्थिवाग्नि ‘होता’ है। आदित्य उद्गाता है एवं चन्द्रमा ब्रह्मा है। अग्नि से ऋग्वेद, वायु से यजुर्वेद, आदित्य से सामवेद उत्पन्न होता है। चन्द्रमा से अर्थात्-सोम से अथर्ववेद उत्पन्न होता है। चारों वेदों के अधिष्ठाता-चार ऋत्विक्-सदा इस प्रकृति-यज्ञ का संचालन करते हैं। सारा संसार मन-प्राण-वाङ्मय है। प्राण-व्यापार वायु से होता है क्योंकि गति वायु में ही है। मनोव्यापार चन्द्रमा से होता है, क्योंकि मन चन्द्रमा से बना है। वाक्-व्यापार अग्नि से ही होता है। मन-प्राण-वाक् तीनों के कार्य नियत हैं, परन्तु ब्रह्मा तीनों में रहता है। बिना मन के प्राण-व्यापार भी नहीं होता एवं वाग्-व्यापार भी नहीं होता। इसीलिए चारों वेदाें के ज्ञाता को ही ब्रह्मा बनाया जाता है। प्रकृति-यज्ञ में चन्द्रमा ब्रह्मा है, जैसा कि श्रुति कहती है-
तस्याग्निर्होताऽऽसीत्। वायुरध्वर्यु:। सूर्य उद्गाता। चन्द्रमा ब्रह्मा ॥ (गोपथ.ब्रा.पू. 1/13) इसी चन्द्रमा-ब्रह्मा के लिए-‘ब्रह्माकृष्णश्च नोऽवतु’ (शत. ब्रा. 13.2.7.7) कहा गया है।
चन्द्रमा का प्रकाश वस्तुत: सूर्य का है। चन्द्रमा पर जब सूर्य रश्मियां आती हैं तो चन्द्रमा चमकने लगता हैं। जिस ओर सूर्य का प्रकाश रहता है, उसके पृष्ठभाग में चन्द्रमा के कृष्ण वर्ण को हम प्रत्यक्ष देख सकते हैं। द्वितीया-तृतीयादि तिथियों के एक-दो कलाओं वाले चन्द्रमा की प्रकाशित कलाओं के अतिरिक्त सारा चन्द्रमा काला दिखता है। चन्द्रमा की ज्योति अपनी नहीं है। सूर्य-ज्योति ही चन्द्र-ज्योति बनी हुई है। चन्द्रमा का प्रकाश आश्रित धर्म है, उसका स्वरूप धर्म नहीं। श्रुति कहती है-
‘‘अत्राह गोरमन्वत नाम त्वष्टुरपीच्यम्। इत्था चन्द्रमसो गृहे॥’’ (ऋग्वेद 1/84/15)
चन्द्रमा का आधाभाग प्रकाशित होता है। यही गौर वर्ण चन्द्रिका (चांदनी) ‘राधा’ है। बिना राधा के कृष्ण छुपा रहता है। वैहायस-कृष्ण के साथ दो राधाओं का सम्बन्ध होता है। एक का नाम है-कृष्णप्राणा, दूसरी है-रासेश्वरी। कृष्णप्राणा राधिका नित्या है। सूर्य से निकलने वाला सौर प्राण इन्द्र कहलाता है। सूर्य यानी इन्द्र से विष-उपविष, धातु-उपधातु, रस-उपरस आदि पदार्थ बरसते हैं। इस वर्षण शीलता से इन्द्र को वृषा कहते हैं। अत: इन्द्रमय सूर्य को वृषभानु कहते हैं। सूर्य की रश्मियों से उत्पन्न होने से चन्द्रिका को वृषभानुसुता कहा है।
नित्या-अनित्या राधा
वृषभानुसुता-चन्द्रिका के प्रकाश से चन्द्र्रमा सदा युक्त रहते हैं। पूर्णिमा को कृष्णभाग नहीं दिखता अपितु चन्द्रिका ही (राधा ही) दिखलाई पड़ती है। पूर्णिमा में राधा ने कृष्ण को छुपा रखा है। अमावस्या में अन्तर्हित* राधा-कृष्ण दिखते हैं। उस दिन चन्द्रिका कृष्ण के पीछे रहती है एवं द्वितीया-तृतीया आदि तिथियों में राधा-कृष्ण दोनों ही के दर्शन होते हैं।
‘रास वाली’ राधा अनित्या है। वर्ष भर में एक दिन-कार्तिक शुक्ला पूर्णिमा को-इसका कृष्ण के साथ सम्बन्ध होता है। यह सारे कामों को समृद्ध करती है-संसिद्ध करती है। सत्ताईस नक्षत्रों में जो विशाखा नक्षत्र है-उसे ही ‘राधा’ कहते हैं। ‘राधा विशाखा युज्यते’ कहा जाता है। सत्ताईसों नक्षत्रों में भिन्न-भिन्न प्राण रहते हैं। जो इन नक्षत्रों के देवता कहलाते हैं। विशाखा नक्षत्र के देवता ऐन्द्राग्नी अर्थात् इन्द्राग्नि है।
‘‘नक्षत्राणामधिपत्नी विशाखे। श्रेष्ठाविन्द्राग्नी भुवनस्य गोपौ। विषूच: शत्रूनपबाधमानौ अप क्षुधं नुदतामरातिम्॥’’ (तै.ब्रा. 3/1/1/11-12)
इन्द्र और अग्नि-ये दो ही देवता प्रधान हैं। अग्नि पृथ्वीलोक के अधिष्ठाता हैं-इन्द्र द्युलोक के अधिष्ठाता हैं। संसार के समस्त काम पृथ्वी और सूर्य से अर्थात् अग्नि और इन्द्र से होते हैं। जड़-चेतन समस्त पदार्थों का निर्माता पार्थिव-रस अग्नि और सौर-रस इन्द्र ही होता है। ये ही दो रोदसी*-त्रिलोकी के नियन्ता हैं। ये दोनों विशाखा नक्षत्र के देवता हैं अर्थात् प्राण हैं। विशाखा में मौजूद अग्नि से पार्थिव लोक की पुष्टि होती है, इन्द्र से दिव्य-लोक की पुष्टि होती है। अत: दोनों लोकों के साधन रूप में विशाखा अनित्या राधा है। कार्तिक की पूर्णिमा को जब कि कृत्तिका पर चन्द्रमा रहता है एवं राधा (विशाखा) पर सूर्य रहता है-कृष्णचन्द्र का इस राधा के साथ संयोग ही रास होता है। इस दिन अनित्या राधा और नित्या राधा दोनों एक बन जाती हैं।
वृषभानुसुता-चन्द्रिका के प्रकाश से चन्द्र्रमा सदा युक्त रहते हैं। पूर्णिमा को कृष्णभाग नहीं दिखता अपितु चन्द्रिका ही (राधा ही) दिखलाई पड़ती है। पूर्णिमा में राधा ने कृष्ण को छुपा रखा है। अमावस्या में अन्तर्हित राधा-कृष्ण दिखते हैं। उस दिन चन्द्रिका कृष्ण के पीछे रहती है एवं द्वितीया-तृतीया आदि तिथियों में राधा-कृष्ण दोनों ही के दर्शन होते हैं।
‘रास वाली’ राधा अनित्या है। वर्ष भर में एक दिन-कार्तिक शुक्ला पूर्णिमा को-इसका कृष्ण के साथ सम्बन्ध होता है। यह सारे कामों को समृद्ध करती है-संसिद्ध करती है। सत्ताईस नक्षत्रों में जो विशाखा नक्षत्र है-उसे ही ‘राधा’ कहते हैं।
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