
अव्यय ही सृष्टि का मूल
Gulab Kothari Article Sharir Hi Brahmand: आधुनिक भौतिकशास्त्र का सबसे महत्त्वपूर्ण रहस्योद्घाटन विश्व की आधारभूत एकता है। ज्यों-ज्यों हम पदार्थ के भीतर प्रवेश करते हैं, आणविक स्तर पर यह स्पष्ट होता जाता है कि इस ब्रह्माण्ड की सभी वस्तुएं एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं, वे परस्पर सम्बद्ध हैं। उनको अलग-अलग रूप में हम नहीं समझ सकते अपितु उन्हें समष्टि के एकीकृत अंशों के रूप में ही जाना जा सकता है। साधारण जीवन में हम इस एकत्व से अनजान रहते हैं। इसका कारण अविद्या है। अविद्या का नाम ही आवरण है। विद्या का संग्रह करके हम अविद्या से बाहर निकलने का प्रयास करते हैं। विद्या और अविद्या ये ब्रह्म की दो दिशाएं हैं। अविद्या हम जन्म से ही साथ लेकर पैदा होते हैं। विद्या आवरणों की समझ पैदा कर उन आवरणों से बाहर निकलने का मार्ग देती है।
भारतीय सृष्टि विज्ञान के मूल आधार रस और बल हैं। बल वह तत्त्व है जो अनन्त स्वरूप, गुण और शक्तियों वाला है। ब्रह्म या रस को आवरित करने वाला बल माया है। सृष्टि पूर्व अवस्था में बल सुप्त रहता है, विशुद्ध रस ही रहता है, यह निर्विशेष कहलाता है। बल जब उद्बुद्ध होता है, तब यह अवस्था परात्पर कही जाती है। बल जब रस को सीमा भाव में लेता है तब पहला अव्यय पुरुष प्रकट होता है। जिसके केन्द्र हो, परिधि हो वह पुर कहलाता है। ऋत से बनने वाला यह पहला सत्य होता है।
सृष्टि में अव्यय ही अक्षर व क्षर रूप में परिणत हो रहा है। अव्यय पुरुष की आनन्द, विज्ञान, मन, प्राण और वाक् पांच कलाएं हैं। इनमें सबसे पहले मन का निर्माण होता है। कामस्तदग्रे समवर्तताधि रूप में सर्वप्रथम मन और उसके बाद कामना का उद्भव बताया गया है।
मन में रस और बल दोनों तत्त्व हैं जिन्हें क्रमश: आनन्द और क्रिया शक्ति कहते हैं। इस प्रकार मन में आनन्द भी है और क्रिया भी। मन में अन्तश्चिति और बहिश्चिति के भेद से दो बलों का चयन या जमाव होता है इसको चिति कहते हैं। इनमें अविद्या के बलों का संचय बहिश्चिति कहा जाता है और विद्या बलों का संचय अन्तश्चिति कहा जाता है।
मन में जब अन्तश्चिति होने लगती है तो प्रथमत: विज्ञान और उसके बाद आनन्द का विकास होता है। अर्थात् विज्ञान मन से तथा आनन्द विज्ञान से सूक्ष्म है। बलों की अत्यन्त न्यूनता के कारण आनन्द रसप्रधान कहलाता है। मन के साथ आनन्द और विज्ञान कलाएं बन्धन को खोलने वाली मुक्तिसाक्षी कलाएं हैं।
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बहिश्चिति में मन में प्राण और उसके बाद वाक् का निर्माण होता है। वाक् तो बलों के अधिक बढऩे से अति स्थूल अवस्था है और उसमें प्रधानता भी बल की रहती है। वाक् में बल की अधिकता के कारण रस का रूप ढंका सा रहता है और वह आनन्दरहित रहता है।
मन न तो अतिसूक्ष्म है और न ही अतिस्थूल है। वह ज्ञान-कर्म इन दोनों का स्वरूप धारण करता हुआ इच्छामय है। अत: अव्यय पुरुष की मन, प्राण, वाक् कलाएं ही सृष्टि अवस्था में आत्मा रूप में सम्पूर्ण चराचर में रहती हैं। ''सोऽयमात्मा मनोमय: प्राणमयो वाङ्मय:' (शतपथ ब्राह्मण)।
अव्यय ही अक्षर और क्षर रूप में समस्त संसार में अवतरित होता है। अव्यय कृष्ण स्वयं कह रहे हैं कि मैं संसार का मूलकारण हूं और मेरे से ही सारा संसार प्रवृत्त हो रहा है अर्थात् चेष्टा कर रहा है- अहं सर्वस्य प्रभवो मत्त: सर्वं प्रवर्तते... (गीता 10.8)
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सामान्य नियम है कि जब किसी व्यापक तत्त्व को परिधि में लिया जाता है तो वह पुन: व्यापक में मिलना चाहता है। इसके लिए उसमें परिधि से बाहर के व्यापक तत्त्व को अपने में मिलाने की प्रवृत्ति बनती है। इस बाहरी व्यापक तत्त्व के प्रति यह कामना शतपथ ब्राह्मण में अशनाया कही गई है।
अशनाया का अर्थ है-भूख यानी सबको अपने भीतर समाहित करने की इच्छा। यह अशनाया वस्तुत: एक प्रकार का बल है। जो उक्थ,अर्क और अशिति तीन रूपों में कार्य करता है। व्यापक अंश को लेने के लिए उठने वाला अंश उक्थ कहा जाता है।
बाहर की ओर गति करने वाला अंश अर्क कहलाता है तथा बाहर से ग्रहण करने वाला अंश अशिति अर्थात् खुराक बन जाता है। इस समस्त आकर्षण-विकर्षण प्रक्रिया से बलों का परस्पर संघर्ष उत्पन्न हो जाता है। इससे क्रिया प्रधान अक्षर पुरुष की उत्पत्ति है।
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ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र, अग्नि व सोम इन पांच कलाओं से समन्वित अक्षर पुुरुष प्राण प्रधान है, क्रिया प्रधान है। इनमें परिधि के भीतरी तत्त्व को बाहर फैंकने वाली शक्ति इन्द्र, बाहरी तत्त्व को भीतर लाने वाली शक्ति विष्णु तथा दोनों क्रियाओं के होते रहने पर भी वस्तु को एक रूप में प्रतिष्ठित रखने वाली शक्ति ब्रह्मा कही जाती है।
ये तीनों शक्तियां केन्द्र में रहने से नभ्य प्राण भी कहलाती हैं। अव्यय पुरुष की प्राण और वाक् कलाएं ही अक्षर पुरुष की अग्नि और सोम रूप कलाओं के रूप में विकसित होती हैं। केन्द्र से फैंके हुए रस का प्रतिष्ठा प्राण की सहायता से बाहर एक पृष्ठ बन जाता है।
इस पर दो तत्त्व रहते हैं। बाहर जाने वाला अर्थात् अग्नि और बाहर से आकर भीतर केन्द्र की ओर जाने वाले अर्थात् सोम। चूंकि इन पृष्ठ कलाओं का विकास तत्त्वों के बाहर निकलने के कारण ही हुआ है अत: इन्द्र शक्ति के साथ इनका विशेष सम्पर्क रहता है। इन्हीं तीनों (इन्द्र, अग्नि, सोम) के सम्मिलित स्वरूप को महेश्वर कहते हैं। इनमें इन्द्र का अधिष्ठान सूर्य, सोम का चन्द्र तथा अग्नि का पृथ्वी है।
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श्रुतियों में प्रतिपादित हुआ है कि प्रजापति का अर्धभाग तो अमृत रहता है और आधा भाग मत्र्य हो जाता है। इसका आशय है कि अक्षर पुरुष अंशत: अपने स्वरूप में भी बना रहता है और उसी का अंश भूतों के रूप में भी विकसित होता जाता है। भूतों के रूप में विकसित होना ही संसार की उत्पत्ति है। इसलिए कहा जा सकता है कि भूत-रूप में परिणत क्षर पुरुष ही संसार है।
अक्षर की सहायता से क्षर पुरुष की भी पांच कलाएं बनती है-प्राण, आप्, वाक्, अन्नाद और अन्न। संसार प्रक्रिया में क्षर पुरुष की ये कलाएं-आधिभौतिक, आधिदैविक तथा आध्यात्मिक रूपों में विकसित होती हैं। इनमें स्वयम्भू, परमेष्ठी, सूर्य, चन्द्रमा और पृथ्वी-इस पंचपर्वा विश्व को आधिभौतिक क्षर कहते हैं।
आधिदैविक कलाओं के नाम ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र, अग्नि और सोम हैं। इनके परस्पर सहयोग से उत्पन्न होने वाली आध्यात्मिक क्षर कलाओं को बीज-चिति (कारण-शरीर), देव-चिति (सूक्ष्म-शरीर), भूत-चिति (स्थूल-शरीर), प्रजा (सन्तति) और वित्त (सम्पत्ति) कहते हैं।
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अक्षर की कलाओं से क्षर पुरुष का विकास होने के लिए एक नये तत्त्व की आवश्यकता होती है। जिसे वैदिक परिभाषा में शुक्र तथा लोक में वीर्य कहा जाता है। यही शुक्र इस सम्पूर्ण सृष्टि की उत्पत्ति का मूल कारण है। तीनों पुरुषों में केवल अव्यय पुरुष को पुरुष कहते हैं।
अक्षर और क्षर को परा और अपरा प्रकृति के नाम से जाना जाता है। पुरुष और प्रकृति के योग से उत्पन्न होने वाला तत्त्व ही शुक्र है। ये तीनों एक ही मूल तत्त्व के रूप हैं। तदेव शुक्रं तद् ब्रह्म तदेवामृतमुच्यते।
अत: प्रत्येक जीवात्मा ब्रह्म का ही अंश रूप है, भिन्न-भिन्न वस्त्रों-शरीर के कारण भ्रमित भी है। भीतर देख पाना सम्भव नहीं है। जड़-चेतन सभी के हृदय में ईश्वर है। यही सृष्टि का व्यष्टि/समष्टि भाव है। संहित स्वरूप है।
क्रमश:
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Updated on:
10 Sept 2022 07:53 am
Published on:
10 Sept 2022 07:39 am
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