तुम ही मैं, मैं ही तुम
नई दिल्लीPublished: Mar 19, 2023 09:51:09 am
Gulab Kothari Article Sharir Hi Brahmand : कृष्ण कहते हैं कि कर्म करो, फल की इच्छा मत करो। मेरे लिए कर्म करो और फल भी मुझे ही अर्पण कर दो। तुम फल भोगने से मुक्त हो गए। तुम तो हो ही, जानते बस नहीं हो। भक्त का अर्थ भी ‘अंश’ ही है... 'शरीर ही ब्रह्माण्ड' शृंखला में पढ़ें पत्रिका समूह के प्रधान संपादक गुलाब कोठारी का यह विशेष लेख-


शरीर ही ब्रह्माण्ड : तुम ही मैं, मैं ही तुम
Gulab Kothari Article शरीर ही ब्रह्माण्ड: गीता के सार रूप में कहा जा सकता है कि सभी प्राणियों का जन्म यज्ञ से होता है। पालन-पोषण भी यज्ञ से होता है। पुनर्जन्म या मोक्ष भी यज्ञ से होता है। यह यज्ञ, पुरुष और प्रकृति का है। हम तो निमित्त मात्र हैं, सामग्री हैं। यज्ञ के प्रति हमारा तो द्रष्टा भाव ही रहना चाहिए, कर्ता भाव नहीं। हमारा शरीर माया भाव है। जन्म से पूर्व भी नहीं था, मृत्यु के बाद भी नहीं होगा। कृष्ण कहते हैं-
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।। (2.47)
-कर्म करने में ही तेरा अधिकार है फलों में कभी नहीं। तू कर्मफल का हेतु भी मत बन और तेरी अकर्म में भी आसक्ति न हो।
योगस्थ: कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनंजय।
सिद्ध्यसिद्ध्यो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।। (2.48)
-हे धनंजय तू आसक्ति का त्याग करके सिद्धि-असिद्धि में सम होकर योग में स्थित हुआ कर्मों को कर क्योंकि समत्व ही योग कहा जाता है।
बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योग: कर्मसु कौशलम्।। (2.50)
-बुद्धि (समता) से युक्त मनुष्य पुण्य और पाप दोनों का त्याग कर देता है। अत: तू योग (समता) में लग जा क्योंकि योग ही कर्मों में कुशलता है।
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:।। (18.66)
-सम्पूर्ण धर्मों का आश्रय छोड़कर तू केवल मेरी शरण में आ जा। मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूंगा।