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इतिहास बताता है, कुत्तों को हटाने से बढ़ता है संकट

मेनका गांधी, पूर्व केंद्रीय मंत्री

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stray dogs सुप्रीम कोर्ट आज सुनाएगा फैसला (प्रतीकात्मक तस्वीर- Patrika)

stray dogs की प्रतीकात्मक तस्वीर। (फोटो- Patrika)

सूरत नगर निगम आयुक्त के आदेश पर 1994 में दो हफ्तों में शहर के सभी कुत्ते मार दिए गए। कुत्ते नहीं रहे तो चूहों ने जमीन पर कब्जा कर लिया और दो हफ्ते बाद घातक बीमारी ब्यूबोनिक प्लेग के तीन मामले सामने आए। पूरे देश में लोग मास्क पहनने लगे, निर्यात रुक गया और पर्यटन ठप पड़ गया। 1880 के दशक में पेरिस में सभी कुत्ते-बिल्लियां मारने और माओ के समय चीन में गौरैया खत्म करने के आदेश के नतीजे भी विनाशकारी रहे। गौरैया के विनाश से भयानक अकाल पड़ गया, गौरैया से नियंत्रित होने वाली टिड्डियां अनियंत्रित हो गई और उन्होंने देश को बर्बाद कर दिया। हाल ही सुप्रीम कोर्ट ने स्वत: संज्ञान लेते हुए सभी कुत्तों को सड़कों से हटाने का जो आदेश दिया है, उसमें न तो मौजूदा कानूनों और न ही इससे होने वालेहानिकारक परिणामों पर विचार किया गया है।

डब्ल्यूएचओ के 1:100 के अनुपात (हर सौ लोगों पर एक कुत्ता) के सर्वे के आधार को मानें तो भारत में कुल 1.4 करोड़ कुत्ते हैं। अगर दिल्ली, राजस्थान या तमिलनाडु जैसे राज्य यह आदेश लागू करें तो बजट का आधे से अधिक हिस्सा पाउंड बनाने में खर्च हो जाएगा। दिल्ली में इसका अर्थ होगा- 8,000 शेल्टर, 1.5 लाख सफाईकर्मी, 500 वैन, दर्जनों पशु-चिकित्सक व गार्ड और 15,000 करोड़ रुपए का खर्च (जमीन छोड़कर)। सिर्फ खाने पर ही हर हफ्ते 5 करोड़ रुपए लगेंगे, जो फिलहाल समाज खुद वहन करता है। राज्यों में तो यह बोझ कई गुना बढ़ जाएगा। पाउंड बार-बार असफल साबित हुए हैं। 30 साल पहले जोधपुर का पाउंड कुछ हफ्तों में ही बंद करना पड़ा, क्योंकि सभी कुत्ते मर गए और हालत इतनी खराब हो गई कि स्टाफ अंदर नहीं जा सकता था। मोहाली का पाउंड भी इन्हीं कारणों से आज खाली पड़ा है। कुत्तों को हटाने से बंदरों का उत्पात भी बढ़ेगा, क्योंकि अभी कुत्तों के डर से वे थोड़ा दूर-दूर ही रहते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 30 साल पहले कुत्तों की नसबंदी को एकमात्र प्रभावी समाधान बताया था। दुर्भाग्यवश, इसके लिए नियम तो बनाए गए, लेकिन कार्यक्रम को कोई ठोस रूप व पर्याप्त वित्तीय मदद नहीं दी गई। एनिमल वेलफेयर बोर्ड ऑफ इंडिया के पास इसके लिए न्यूनतम स्टाफ है और कोई अलग बजट भी नहीं। राज्यों में कुत्तों की नसबंदी के लिए शहरी विकास मंत्रालय से जारी फंड बड़े शहरों तक ही पहुंचता है, नगरपालिकाओं को खुद संसाधन जुटाने पड़ते हैं। कई केंद्र अनुभवहीन या धोखेबाज एनजीओज के भ्रष्टाचार के अड्डे बन गए हैं, जो स्थानीय अधिकारियों की मिलीभगत से आंकड़े बढ़ाकर अधिक फंड लेते हैं और रोजाना कुत्तों को इधर से उधर करते रहते हैं, जिससे काटने की घटनाएं बढ़ती हैं।

कुत्ते के काटने के आंकड़ों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करना बंद करना होगा। सच्चाई यह है कि एंटी-रेबीज का पूरा कोर्स पांच इंजेक्शन का होता है और हर इंजेक्शन को अलग घटना के रूप में गिना जाता है। इसलिए संसद में पिछले साल बताए गए 37 लाख मामलों को पांच से विभाजित करने पर वास्तविक घटनाएं लगभग 7.2 लाख निकलती हैं। इनमें भी कोई आधिकारिक आंकड़ा पालतू और आवारा कुत्तों के काटने में आनुपातिक अंतर नहीं बताता, लेकिन अनौपचारिक अनुमान 70:30 का है। रेबीज से होने वाली 54 मौतों की तुलना में सड़क दुर्घटनाओं में हर हफ्ते लगभग 2,000 मौतें होती हैं। इस समस्या के समाधान में लखनऊ पूरे देश के लिए अनुकरणीय है। यहां उत्कृष्ट नसबंदी केंद्र भी है और सभी पालतू कुत्तों का पंजीकरण भी अनिवार्य है। विदेशी नस्लों के मालिकों को 500 रुपए वार्षिक शुल्क देना होता है, जबकि भारतीय कुत्तों को अपनाने वालों के लिए कोई शुल्क नहीं है।

नीदरलैंड ने तो पूर्ण सरकारी फंडिंग से व्यापक राष्ट्रीय नसबंदी कार्यक्रम चलाकर आवारा कुत्तों की समस्या ही खत्म कर दी। अक्टूबर 2022 में, सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया था कि सड़क के कुत्तों को कैद में नहीं रखा जा सकता और आवारा कुत्तों को खिलाने वालों को उन्हें गोद लेने या शेल्टर में रखने के नागपुर पीठ के आदेश को रोक दिया था। एक स्वत: संज्ञान आदेश इसे कैसे पलट सकता है। भारत में पहले से ही पशु क्रूरता निवारण अधिनियम और पशु जन्म नियंत्रण नियम जैसे स्पष्ट कानूनी प्रावधान हैं। कोई भी कार्रवाई इन्हीं के दायरे में होनी चाहिए।

(मेना गांधी लंबे समय से एनिमल राइट्स एक्टिविस्ट के रूप में कार्यरत हैं)