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आत्महत्या के बढ़ते मामले चिंताजनक, वजहों पर ध्यान देने की जरूरत

डॉ. ईश मुंजाल सदस्य, सीडब्ल्यूसी, आइएमए जयपुर ब्रांच

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आत्महत्या के बढ़ते मामले गंभीर चिंता का विषय है। इन्हें रोकने के तमाम प्रयास कारगर नहीं हो पा रहे। कारण भले ही एक से नहीं हों, पर कहीं परिवार की तो कहीं सिस्टम की खामियां सामने आ रही हैं। अतुल सुभाष ही नहीं, दिल्ली में बेकरी मालिक ने पत्नी से चल रहे विवाद के चलते आत्महत्या कर ली। ऐसे मामले बढ़ रहे हैं। खत्म होते संयुक्त परिवार कहें या एकल परिवार में सामंजस्य का अभाव, मौत को चुनना विकल्प कैसे बनता जा रहा है? घरेलू विवाद में आत्महत्या करना वैसे भी सबसे ज्यादा भयावह है। वो इसलिए भी कि पूरा परिवार ताउम्र इस अनहोनी के होने का मातम मनाता रहता है, समय पर उचित कदम नहीं उठाने के लिए खुद को धिक्कारते हैं सो अलग। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) का दावा है कि हर साल दुनिया में तकरीबन सात लाख लोग आत्महत्या करते हैं।
अकेले भारत यह आंकड़ा करीब पौने दो लाख है यानी करीब 25 फीसदी। जब व्यक्ति को किसी मुश्किल से निकलने का कोई रास्ता नहीं मिलता है, तो वो अपना जीवन खत्म करने के बारे में सोचता है। 'खुद का कत्ल' करने की संख्या के साथ इसकी बढ़ती वजह पर भी ध्यान देना होगा। ऐसे में मनोचिकित्सक (साइकेट्रिस्ट) की बढ़ती भूमिका को नजरअंदाज किया जाना गलत होगा। कभी समाज में कलंक के रूप में माने जाने वाले मनोरोग के लिए पीडि़त को मनोचिकित्सक तक से मिलाना गवारा नहीं था। अब सफल होने के लिए मनोरोग विशेषज्ञ (साइकेट्रिस्ट) की सलाह अत्यंत महत्त्वपूर्ण हो गई है। तीस-चालीस साल पहले साइकेट्रिस्ट सेंटर/मनोचिकित्सा केंद्र को जो कहा जाता था वो अब बदल गया है। यहां तक कि वो कामयाबी का सेंट्रल प्वॉइंट बन चुका है।
फिल्म डियर जिंदगी में करियर को लेकर भटकी युवती की जिंदगी को मनोचिकित्सक नया दृष्टिकोण देता है। ऐसी कई फिल्मों में मनोचिकित्सक अवसाद/तनाव समेत अन्य मुश्किलों से जूझते लोगों की जिंदगी को पटरी पर लाने में सफल होते दिखे हैं। गुडविल हंटिंग, ब्यूटीफुल माइंड समेत कई फिल्में इस हकीकत को दर्शाती हैं। हाल ही में रैपर यो यो हनी सिंह ने भी डिप्रेशन से निकलने में मेटल हेल्थ विशेषज्ञ की भूमिका को अपनी एक डॉक्यूमेंट्री में बताया है। यह बात फिल्मों की ही नहीं है, असल जिंदगी में भी यही सब हो रहा है। बड़ी-बड़ी सेलिब्रिटीज इंटरव्यू के दौरान भटकने का दौर बताते हुए सही दिशा देने वाले का शुक्रिया करते देखे गए हैं। आत्महत्या करने वालों में यूथ अधिक है तो बच्चों पर बढ़ती आकांक्षाएं भी कहीं ना कहीं इसका कारण बन रही है। कुछ समय पहले तक ऐसी विषम परिस्थिति को संभालने के लिए परिवार या आसपास बहुत लोग हुआ करते थे। हेल्प करने वाले लोग कम हो गए हैं। बढ़ता ईगो, समझौता नहीं करने की जिद के अलावा प्रोफेशनल हेल्प के लिए आगे नहीं आना भी दुखद है। लोग मेंटल हैल्थ इश्यूज को समझने लगे हैं, साइकेट्रिस्ट के पास जाने वालों की तादात भी काफी बढ़ी है।
बावजूद इसके मामूली से विवाद या फिर जिंदगी में अब कुछ नहीं होने वाली सोच के साथ भ्रमित अपनों पर अपने ही ध्यान नहीं दे रहे, जो गलत है। मेंटल हैल्थ प्रोग्राम बढ़ाए जाएं, बच्चों को स्कूली/कॉलेज शिक्षा में ही ऐसी परिस्थितियों से डटकर मुकाबला करने के गुर सिखाए जाएं। मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार के हालिया प्रयासों के बावजूद अभी भी मनोचिकित्सकों की कमी है, विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में किफायती मानसिक स्वास्थ्य देखभाल तक सीमित पहुंच है। यह समस्या मानसिक स्वास्थ्य संकट को और भी बढ़ाती है। यह अनमोल जिंदगी यूं ही मामूली सी परेशानी/डर से खत्म करने के लिए थोड़े ही है। जिंदगी इन तमाम मुश्किलों को पार करने का जज्बा भी रखती है। युवा ही नहीं हर उम्र के ऐसे लोगों को इस सुसाइड सोच से बाहर निकालने की कवायद जोरों पर होनी चाहिए।