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भारत-अमरीका के आर्थिक समीकरण: अस्थायी झटका या स्थायी दरार?

द्रोण यादव, अमरीका बनाम अमरीका पुस्तक के लेखक

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ट्रंप टैरिफ भारत के लिए केवल आयात-निर्यात के तकनीकी विवाद तक सीमित नहीं है, बल्कि यह प्रतिस्पर्धात्मकता, रोजगार और रणनीतिक स्वायत्तता की एक साथ परीक्षा है, जो यह बताती है कि अब नियम-आधारित व्यापार की जगह भू-राजनीति ने निर्णायक स्थान ले लिया है। अमेरिकी बाजार भारत के लिए सबसे बड़ा निर्यात गंतव्य रहा है और 50त्न तक की अत्यधिक शुल्क-वृद्धि यह संकेत देती है कि कौशल और मूल्य से अधिक आज नीति-संशय और सुरक्षा-राजनीति व्यापार-धाराओं को मोड़ रही है। ऐसे परिदृश्य में, जो निर्यातक कम लाभ पर कारोबार कर रहे हैं, उनके लिए अतिरिक्त शुल्क उपभोक्ता मांग को घटा देता है और खरीदारों को वैकल्पिक स्रोतों या निकट-स्थापित आपूर्तिकर्ताओं की तलाश पर मजबूर करता है। सवाल सिर्फ कीमत का नहीं, भरोसे की दृढ़ता का भी है, क्या अगली नीति-लहर (संकट) में आपूर्ति फिर बाधित होगी? यही अविश्वास ऑर्डर-रीरूटिंग को तेज करता है व यह प्रभाव महज कुछ हफ्तों में नजर आ सकता है।

सबसे अधिक दबाव श्रम-प्रधान क्षेत्रों पर पड़ेगा, जिसमें वस्त्र-परिधान, जेम्स-एंड-ज्वैलरी, लेदर-फुटवियर, सी-फूड और ऑटो कंपोनेंट्स शामिल हैं, जहां लागत का हर कदम निर्णायक होता है और एमएसएमई इस क्लस्टर-आधारित पारिस्थितिकी रोजगार की रीढ़ हैं। इन श्रेणियों में कीमत के उतार-चढ़ाव की गुंजाइश सीमित है। नतीजतन या तो मार्जिन कम होंगे या ऑर्डर रद्द होंगे- दोनों ही स्थितियों में नकदी-चक्र बिगड़ता है, कार्यशील पूंजी महंगी पड़ती है और निवेश रफ्तार धीमी हो जाती है। रणनीतिक रूप से यह जोखिम इसलिए बड़ा है कि यही सेक्टर निर्यात-रोजगार का प्रमुख स्रोत है, इन पर दबाव, घरेलू निवेश चक्र पूरी रफ्तार पकड़ने से पहले ही अर्थव्यवस्था (मैक्रो-वृद्धि) को मंदा कर सकता है। यह सही है कि फार्मा और कुछ इलेक्ट्रॉनिक्स जैसी श्रेणियां फिलहाल आंशिक छूटों या वैश्विक मांग की गति के कारण अपेक्षाकृत बेहतर स्थिति में दिखें, पर सप्लाई चेन को पहले से लगे आघात लॉजिस्टिक्स, वित्त-लागत अनुपालन का परोक्ष असर उनसे भी टलेगा नहीं। क्या यह भारत-अमेरिका आर्थिक समीकरण में स्थायी दरार का संकेत है? संभवत: नहीं। लेकिन यह भ्रम भी नहीं पालना चाहिए कि थोड़ी कूटनीतिक बयानबाजी या सीमित-उत्पाद छूट से समस्या स्वत: हल हो जाएगी। व्यावहारिक नीति-प्रतिक्रिया तीन मोर्चों पर एक साथ चाहिए।

पहला, तात्कालिक सौदेबाजी, समय-सीमा का विस्तार, ट्रांजिशनल अरेंजमेंट और आइटम-विशेष छूटों पर लक्ष्य आधारित वार्ता ताकि पाइपलाइन शिपमेंट बिना अनावश्यक नुकसान के निकल सकें। दूसरा, घरेलू बफर निर्यात उत्पादों पर शुल्क व करों में छूट की योजना, जिससे निर्यातित वस्तुओं की लागत कम करना संभव हो जाता है। तीसरा, संरचनात्मक मजबूती, उत्पादकता निवेश, गुणवत्ता मानकों में सुधार और वैल्यू-एडेड उन्नयन से ब्रांडेड तथा तकनीकी आधारित उत्पादों की ओर अग्रेषित होना ताकि मूल्य-शक्ति बने और किसी भी टैरिफ-झटके को सहन कर सके। कॉर्पोरेट रणनीति में बहु-बाजार व्यवस्था की उपस्थिति अब एक अनिवार्यता बन चुकी है, जो किसी भी देश की अर्थव्यवस्था के अस्तित्व की एक शर्त है। यूरोप, मध्य-पूर्व, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका में वास्तविक हिस्सेदारी बढ़ाने के लिए केवल ट्रेड-फेयर काफी नहीं, आफ्टर-सेल्स व सर्विस-लेवल समझौतों के साथ लंबी अवधि के अनुबंधों की जरूरत है। इस संकट में अवसर भी छिपा है। यदि भारत को वियतनाम, इंडोनेशिया जैसे प्रतिद्वंद्वियों की लागत-प्रतिस्पर्धा के समक्ष आना है तो ऊर्जा लागत, बहुस्तरीय कीमत और पोर्ट-लॉजिस्टिक्स में सुधार लाकर सरल करना होगा। भारत शक्ति संपन्न राष्ट्र है। वह चीन से सावधान रहकर दुनिया में एक नया पक्ष खड़ा कर सकता है। उसे समानांतर मूल्य प्रणाली विकसित कर फास्ट-फैशन से टेक-टेक्सटाइल, कच्चे रत्नों से तैयार ब्रांडेड आभूषण, बेसिक ऑटो-पार्ट्स से एडवांस्ड सॉफ्टवेयर मॉड्यूल को विकसित करना होगा, यही मनमाने टैरिफ के सामने शक्ति और स्थायित्व देगा।

ट्रंप टैरिफ समय-संकेत है क्योंकि वैश्वीकरण अब विमर्श नहीं, यथार्थ है। आपूर्ति-शृंखलाएं फिर से खींची जा रही हैं। भारत को इस नक्शे में ‘पीड़ित’ नहीं, ‘डिजाइनर’ बनकर उतरना होगा- जहां कूटनीति सौदे कराती है, उद्योग लागत घटाता है और नीति अनिश्चितताओं के खिलाफ ढाल बनती हैं। यदि यह त्रिकोण सधे तो आज का झटका कल की मजबूती में बदला जा सकता है। अन्यथा हर नए टैरिफ-चक्र में वही सवाल गूंजेगा- तैयारी अधूरी क्यों रही?