
राजस्थान पत्रिका हिंदी हैं हम : जानिए लघुकथा लिख रहे हैं तो किन बातों का रखें ध्यान
डॉ. सत्यनारायण, (प्रसिद्ध कथाकार)
आज लघुकथा एक स्वतंत्र विधा के रूप में मान्य है। संक्षिप्त एवं अर्थगर्भित होने के कारण उसकी व्याप्ति अधिक है। पंचतंत्र, हितोपदेश, जातक कथाओं से लेकर खलील जिब्रान तक लघुकथा का विस्तार रहा है। पहले यह अधिकतर सुनी जाती थी, आज पढ़ी ज्यादा जाती है। लेकिन धीरे-धीरे सुनने की ओर लौट रही है। समयाभाव के कारण पाठकों को समकालीन जीवन स्थितियों, राजनीतिक विडंबनाओं और जटिल होते जीवन को अभिव्यक्त करने के कारण इधर लघुकथाएं लोकप्रिय हो रही हैं। पाठक भी संक्षिप्त होने के कारण लघुकथाएं चाव से पढ़ते हैं।
राजनीतिक व सामाजिक सरोकार के साथ अपने समय की बेचैनी लघुकथाओं का मूल प्रतिपाद्य होना चाहिए। बहुत संक्षेप में कई बार तो एक वाक्य या एक सूक्ति में बात का मर्म देना पड़ता है। दूसरे शब्दों में कहें-'देखन में छोटे लगे, घाव करे गंभीर' इसके लिए भाषा की अनावश्यक पच्चीकारी और उपदेशपरकता से बचना आवश्यक है, जबकि आज हो यही रहा है। इस संदर्भ में मुझे प्रचलित सबसे छोटी लघुकथा याद आ रही है जो इस तरह है - 'रेल में दो यात्री सफर कर रहे थे। एक ने दूसरे से पूछा - क्या तुम भूत में विश्वास करते हो? कहकर वह गायब हो गया।' इस लघुकथा में तब जो अपेक्षा की जाती थी, वह सब है - प्रारंभ, अंत, संवाद, परिवेश, भाषा आदि। लेकिन आज की लघुकथा इससे बहुत आगे चली गई। वह किसी एक ताव को लेकर भी लिखी जा रही है।
असल में कोई भी लघुकथा अपनी संक्षिप्तता या विस्तृतता के कारण नहीं बल्कि दृष्टि, विचार और अपने समय के संघर्ष और पीड़ा को अभिव्यक्त करने के कारण ही प्रभावी होती है। कलेवर में लघु होने के साथ यदि उसमें जीवन दृष्टि की व्यापकता और सटीक भाषा हो तो जनमानस पर स्थायी प्रभाव छोड़ती है। लघुकथा ही नहीं, किसी भी रचना का स्वरूप लेखक के अंदर चलने वाले अंत:संघर्ष का परिणाम होता है, और वह संघर्ष यही कि 'तय करो किस ओर हो तुम?' यही जनपक्षधरता किसी भी रचना की महानता तय करती है। आज यथार्थपरक लघुकथाओं की जरूरत है। ऐसी लघुकथाएं जो पाठक को गहरे तक उद्वेलित करें। यथास्थिति और अन्याय के खिलाफ खड़े होने को प्रेरित करें, तभी वह लघु में वृहत्तर होने की भूमिका में आ पाएगी। किसी भी रचना की यही जीवन दृष्टि लघु को महान बनाती है।
Published on:
19 Oct 2021 10:31 am
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