
देश की शीर्ष अदालत ने ‘शोभित कुमार मित्तल बनाम उत्तर प्रदेश’ के मामले में वैवाहिक विवाद की सुनवाई करते हुए आईपीसी की धारा 498ए (अब भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 84) के दुरुपयोग पर एक बार पुनः चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि आजकल, सास यानी बेटे की मां और पति झूठी शिकायतों के कारण पत्नी से बहुत सावधान रहते हैं। हमने कई शिकायतें खारिज कर दी हैं। हम यह नहीं कह रहे हैं कि हर मामला झूठा है, लेकिन धारा 498ए बहुत कठोर है और इसका दुरुपयोग किया जाता है। यह मामला एक महिला की ओर से शादी के डेढ़ महीने के भीतर धारा 498ए के तहत दर्ज कराई गई शिकायत से जुड़ा था। न्यायाधीश बीवी नागरत्ना और न्यायाधीश आर. महादेवन की पीठ ने इस मामले की सुनवाई करते हुए वैवाहिक विवादों में परिवार के सभी सदस्यों को फंसाने की प्रवृत्ति के प्रति चेतावनी देते हुए कहा कि विशिष्ट विवरणों का उल्लेख किए बिना केवल उत्पीड़न के सामान्य आरोप किसी भी व्यक्ति के खिलाफ आपराधिक कार्रवाई जारी रखने के लिए पर्याप्त नहीं होंगे।
इसी अवधि में 'पूजा रासने बनाम दिल्ली राज्य और अन्य' के मामले की सुनवाई करते हुए दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा कि हालांकि आईपीसी की धारा 498ए महिलाओं को वैवाहिक क्रूरता और दहेज उत्पीड़न से बचाने के लिए महत्त्वपूर्ण है, लेकिन पति के रिश्तेदारों के खिलाफ व्यापक और निराधार आरोपों के माध्यम से इसके दुरुपयोग को रोका जाना चाहिए। केवल तभी जब आरोप कानूनी जांच में खरे उतरें और प्रथम दृष्टया सही साबित हों, तभी मुकदमे की कार्यवाही जारी रहनी चाहिए। ऐसा दृष्टिकोण निर्दोष व्यक्तियों को अनावश्यक मुकदमेबाजी और वैवाहिक झगड़े में होने वाली कठिनाइयों, उत्पीड़न और अपमान से बचाता है।
बीते वर्षों में अनेकानेक बार सर्वोच्च न्यायालय ने भारतीय दंड संहिता की धारा 498ए के दुरुपयोग पर अक्सर चिंता जताई है। मई 2024 में, न्यायाधीश जेबी पारदीवाला और न्यायाधीश मनोज मिश्रा की पीठ ने संसद से अनुरोध किया कि वह भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 85 और 86 के लागू होने से पहले उनमें बदलाव करने पर विचार करे। पीठ ने कहा कि ये प्रावधान भारतीय दंड संहिता की धारा 498ए और उसकी व्याख्या का ही प्रतिरूप हैं।
उल्लेखनीय है कि 2010 में उच्चतम न्यायालय की न्यायाधीश दलवीर भंडारी और न्यायाधीश जेएस राधाकृष्णन की पीठ ने सरकार से साफ तौर पर कहा था कि वह दहेज विरोधी कानून भारतीय दंड संहिता की धारा 498ए पर पुनर्विचार करे। धारा 498ए के तहत मिथ्या शिकायतों की बढ़ती संख्या पर चिंता जताते हुए पीठ ने कहा था कि हमारे सामने बड़ी संख्या में ऐसी शिकायतें आती हैं, जो प्रामाणिक भी नहीं होतीं और परोक्ष उद्देश्यों से दर्ज की जाती हैं। अब समय आ गया है कि विधायिका इस पर विचार करे और जनमत को ध्यान में रखते हुए कानून में उपयुक्त बदलाव करे। न्यायालय ने इस प्रक्रिया को शुरू करने के लिए फैसले की एक प्रति केंद्रीय कानून मंत्री को भेजी थी।
न्यायालय के इस निर्देश को एक वैचारिक बदलाव के प्रतीक के रूप में देखा जा रहा था। एक ऐसे सांस्कृतिक बदलाव के रूप में, जहां केवल महिलाओं को पीड़ित के रूप में देखा जाता है, जो कि झूठे आरोप लगाने में असमर्थ मानी जाती है। महिलाओं को चुपचाप सहने वाली और कुछ भी गलत नहीं करने वाली धारणा ने न्याय प्रशासन को प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों तरीकों से प्रभावित किया है। परंतु शीर्ष अदालत के आदेश के 15 साल बीत जाने के बावजूद भी 498ए के प्रावधानों में कोई भी परिवर्तन नहीं हुआ।
दुर्भाग्य यह है कि बीते दशकों में तथाकथित छद्म नारीवाद का प्रवाह इस विचारधारा को प्रबल बनाने में समर्थ रहा है कि पुरुष संवेदनहीन, लालची, निर्दयी एवं क्रूर होते हैं। महिलाओं के आरोप को ‘अंतिम सत्य’ मानने की मानसिकता पुरुषों को निर्दोष मानने को तैयार ही नहीं है। न्यायालय के फैसले आने से पूर्व ही उन्हें और उनके परिवार को अपराधी घोषित कर दिया जाता है। इन झूठे आरोपों की असली समस्या यह है कि न्यायालय में चाहे कुछ भी हो यह आरोप टिके रहते हैं। एक आरोप, खासकर इस त्वरित दुनिया में, इंटरनेट के जरिए समाज में अपनी जगह बना लेता है।
अगर कोई व्यक्ति दोषमुक्त भी हो जाता है, तो भी दाग बना रहता है। किसी अपराध का गलत आरोप लगना किसी भी व्यक्ति के लिए सबसे दर्दनाक अनुभवों में से एक हो सकता है। गलत आरोप के विनाशकारी प्रभाव जीवन के सभी पहलुओं, व्यक्तिगत संबंधों, पेशेवर अवसरों और मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ते हैं। कई बार तो यह उस अवसाद तक पहुंच जाते हैं कि जीवन पर्यन्त व्यक्ति उससे बाहर नहीं निकल पाता।
निश्चित रूप से 498ए का अदालत पहुंचा हर मामला गलत हो ऐसा नहीं है, परंतु हर आरोप सच्चा हो ऐसा भी संभव नहीं है। सत्य के सामने आए बगैर आंखें मूंदकर किसी को अपराधी मान लेना अमानवीयता ही नहीं, अपितु उस वैधानिक व्यवस्था का भी अपमान है जो यह मानती है कि कानून के समक्ष स्त्री और पुरुष समान हैं। बिना किसी सबूत, बिना किसी मुकदमे, बिना किसी तथ्य के एक ही आरोप किसी पुरुष के करियर, उसकी मानसिक स्थिति और उसके पूरे जीवन को तबाह करने के लिए काफी है। जब वह निर्दोष साबित भी हो जाता है, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। नुकसान स्थायी होता है — और वह महिला जिसने झूठ बोला? उसका कुछ नहीं होता। न जेल, न जुर्माना, और जाहिर है, कोई जवाबदेही नहीं।
अगर पुरुष विरोधी इस सोच के मकड़जाल को जल्दी ही परिवर्तित नहीं किया गया तो वह समय दूर नहीं जब विवाह संस्था मिथ्या आरोपों के भय से दरक जाएगी।
Published on:
08 Oct 2025 04:52 pm
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