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आउटसोर्सिंग: सेवा दोष से दर्द जनता को, लाभ सिस्टम को!

सार्वजनिक सेवाएं कोई हों, सेवा दोष से सर्वाधिक लाभांवित उसका संबंधित विभाग रहता है। जनता के जिम्मे तो बस उस दोष के कारण कष्ट सहना ही आता है।

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- डॉ. विवेक एस. अग्रवाल, सामाजिक सरोकारों से जुड़े मामलों के जानकार

वर्तमान शासन प्रणाली में बड़ी ही रोचक बात है कि चोट का कारण कोई होता है, उससे दर्द किसी और को होता है, मरहम कहीं और लगाया जाता है, लेकिन घाव की गहराई से बेखबर इलाज की जगह घाव को खुद भरने के लिए छोड़ दिया जाता है। यह आलम है उन सभी सार्वजनिक कार्यों का, जिन्हें सरकारी महकमे बेहतर क्रियान्वयन या सीमित संसाधनों के नाम पर ठेके अर्थात् आउटसोर्स कर देते हैं। विडंबना यह है कि जवाबदेही से बचने के लिए विभागों के मूलभूत कार्य भी निजी हाथों में सौंप कर्तव्य की इतिश्री कर दी जाती है।

नाम चाहे ठेका हो या आउटसोर्स या पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप, सभी में बेबस जनता जिसके लिए यह सब कवायद रची जाती है, तो ठगी ही महसूस करती है। निजीकरण की इस दौड़ में गांव की स्थानीय से लेकर राष्ट्रीय सरकार तक कहीं भी अपवाद नहीं है। निजीकरण क्रियान्वयन के लिए एजेंसी के चयन संबंधी विवाद तो सदैव कायम रहते हैं और पारदर्शिता पर भी निरंतर सवाल उठाए जाते रहे हैं। वह तो अपने आप में एक अलग ही मसला है, किंतु एक पक्ष जो सदैव गौण रहा है वह है निजीकरण से आहत जनता के प्रति संबंधित एजेंसियों की जवाबदेही। पूरी प्रक्रिया का यदि अवलोकन किया जाए तो जनता जो कि वास्तविक लाभार्थी होनी चाहिए, मूकदर्शक ही नजर आएगी। उल्लेखनीय है कि विभागों में तकनीकी एवं प्रबंधकीय दक्षता वाला बड़ा अमला होता है, लेकिन उक्त समस्त मसले के लिए भी थर्ड पार्टी पर निर्भर होना पड़ता है। पहले तो यह माना जाता था कि विभागों में भर्ती निजीकरण दौर के प्रारंभ होने से पूर्ववर्ती काल की है अत: उन्हें सहयोग के लिए परामर्शी संस्थाओं की आवश्यकता होती है, किंतु विगत दो दशक में हुई भर्ती से उपलब्ध मानव संसाधन तो उक्त ज्ञान से सराबोर होता है। ऐसे में परामर्शी सेवाओं की कहां आवश्यकता है?

माना कि स्थानीय निकायों के पास योजना के धरातल पर क्रियान्वयन संबंधी मानव संसाधन की कमी है, किंतु उसके सुपरविजन या प्रबंधन की कमी जाहिर करना तो सीधे-सीधे जवाबदेही से मुक्त होने का कुत्सित प्रयास ही है। निजीकरण के नाम पर टैक्स अदा करने वाली जनता को किसी निजी एजेंसी के रहम पर छोड़ दिया जाता है। यह ठेके कभी लंबी अवधि के तो कभी दीर्घावधि के होते हैं। इन ठेकों के द्वारा प्रस्तावित कार्यों का तय रूपरेखा के अनुसार क्रियान्वयन किया जा रहा है अथवा नहीं, यह जांचने या सार्वजनिक करने के लिए कोई ठोस मापदंड नहीं रखे जाते हैं। उसके पीछे जहां एक मंशा सरकारी महकमे और ठेकेदार के बीच साठगांठ की गुंजाइश छोडऩा होता है, वही सेवा प्रदाता एजेंसी को लाभ देने का भी उद्देश्य रहता है। बीते कुछ वर्षों में विशेष तौर पर कचरा प्रबंधन में उपभोग राशि या यूजर चार्जेज के बदले सेवा प्रदान करना आम चलन हो गया है, इसमें कहीं कोई बुराई भी नहीं है। किंतु, सेवा दोष होने पर उसकी भरपाई उपभोक्ता को न होकर सरकारी महकमे को ही होना समझ से परे है। इसे यूं समझा जाए कि यदि 30 दिन की जगह 25 दिन ही सेवाएं मिले तो भी उपभोक्ता को 30 दिन का शुल्क ही देना होगा। यदि सेवा दोष के बदले कोई जुर्माना राशि वसूली भी जाएगी तो वह स्थानीय निकाय के कोष में ही वृद्धि करेगी। आहत उपभोक्ता को किसी भी रूप में भरपाई की गुंजाइश नहीं छोड़ी जाती।

इसी क्रम में सड़कें खराब बनी हों तो आमजन को चलने या वाहन चलाने में बाधा होती है। सड़क की गुणवत्ता के साथ उसका निरंतर संधारण निश्चित अवधि के लिए संबंधित ठेकेदार का दायित्व होता है। शिकायत होने पर उसे दंड भरना पड़ता है और मरम्मत करनी होती है, लेकिन निर्माण दोष के परिणामस्वरूप जनता को अनेकानेक बार वाहन क्षति के साथ-साथ गंभीर शारीरिक एवं आर्थिक नुकसान भी झेलना पड़ता है। दोष से जुड़े नुकसान के लिए उपभोक्ता को ही व्यय भार उठाना पड़ता है। सेवा दोष के नाम पर यदि कोई दंड होता भी है तो राशि सरकारी महकमे को मिलती है अर्थात् जिम्मेदारी से पीछा छुड़ाने वाले महकमे किसी भी सेवा दोष से 'पुरस्कृत' हो जाते हैं और आमजन की पॉकेट पर हर ओर से मार पड़ती है।

ऐसे उदाहरण लगभग सभी सार्वजनिक सेवा प्रदाता उद्यमों में हैं, जहां आहत तो जनता होती है और लाभ सरकारी महकमे को होता है। विमान सेवाओं के भी विलंबित या रद्द होने पर दंड राशि संबंधित विभाग को प्राप्त होती है और यात्री अपनी विवशता के संताप में घुला रहता है। यात्री को तो रद्द या विलंब का वास्तविक कारण पता ही नहीं चल पाता। वह तो अपनी वैकल्पिक व्यवस्था के तनाव में समस्त अपेक्षाओं को छोड़ देता है। जवाबदेह बनने के लिए क्या यह जरूरी नहीं है कि कारण को सार्वजनिक किया जाए। सार्वजनिक सेवाएं कोई हों, सेवा दोष से ज्यादा लाभांवित उसका संबंधित विभाग रहता है। आपसी गठजोड़ की इस सूरत को बदलने संबंधी प्रयासों की नितांत आवश्यकता है ताकि वास्तविक रूप से प्रभावित व्यक्ति को सेवा में दोष होने पर भरपाई हो तथा जिम्मेदार महकमे जवाबदेह बनें।