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पत्रिका में प्रकाशित अग्रलेख: अफसरों के हवाले शहर

लोकतंत्र की उम्र जैसे-जैसे बढ़ रही है, उसे पीछे धकेलने की कोशिशें बढ़ने लगी हैं। राजस्थान में भी कुछ ऐसा ही हो रहा है। यहां कोशिश की जा रही है कि लोकतांत्रिक संस्थाओं में ‘अफसर राज’ कायम हो जाए।

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फोटो: पत्रिका

भुवनेश जैन

लोकतंत्र की उम्र जैसे-जैसे बढ़ रही है, उसे पीछे धकेलने की कोशिशें बढ़ने लगी हैं। राजस्थान में भी कुछ ऐसा ही हो रहा है। यहां कोशिश की जा रही है कि लोकतांत्रिक संस्थाओं में ‘अफसर राज’ कायम हो जाए। कोशिश ही क्यों- ऐसा लगातार किया जा रहा है।

प्रदेश में नगरपालिकाएं, नगर निगम जैसे शहरी निकायों और पंचायती राज संस्थाओं को एक-एक करके अफसरों के हवाले किया जा रहा है। जिद है! इनके चुनाव समय पर नहीं करवाए जाएंगे। कभी कोई बहाना, कभी कोई? चाहे न्यायपालिका के निर्णयों की उपेक्षा करनी पड़े या फिर संविधान का अपमान- किसी को कोई चिंता नहीं है।

कार्यकाल पूरा करने वाले 53 शहरी निकाय पहले ही अफसरों के हवाले किए जा चुके हैं। अब जयपुर, जोधपुर, कोटा जैसे विशाल नगर निगमों का नाम भी इनमें जुड़ गया है। अगले साल की शुरुआत तक राज्य के सभी स्थानीय निकायों पर प्रशासक काबिज होंगे। पर चुनाव की तैयारी कहीं नजर नहीं आती।

संविधान में स्पष्ट प्रावधान है कि शहरी निकायों में पांच वर्ष में चुनाव कराना अनिवार्य है। पांच वर्ष भी खत्म हो गए- चुनाव नहीं हुए। राजस्थान हाईकोर्ट ने भी 20 सितम्बर को इसके लिए आदेश दिए, फिर भी कोई फर्क नहीं पड़ा। राज्य निर्वाचन आयोग और मुख्य सचिव न जाने किस मिट्टी के बने हैं। कानून से ज्यादा उन्हें किस बात की परवाह होनी चाहिए?

क्या आम आदमी अपनी समस्याओं के लिए प्रशासकों के रूप में बैठे अफसरों तक पहुंचने का साहस कर पाएगा? संवेदनशील अफसर अब बिरले ही मिलते हैं। लोग पार्षदों का हाथ पकड़कर अपनी समस्या दिखाने, अपने क्षेत्र में आसानी से ले जाते थे। क्या ज्यादातर अफसर अपने केबिन से भी निकलेंगे? विकास कार्य जनता की प्राथमिकता के आधार पर होते हैं। क्या प्रशासक भी उन्हीं प्राथमिकताओं पर कार्य करेंगे?

जितना बड़ा विकास- उतना बड़ा बजट। क्या इस बजट का ईमानदारी से उपयोग हो पाएगा या ‘टेंडर-टेंडर’ के खेल शुरू हो जाएंगे। बातें सिर्फ अफसरों की ही नहीं हैं। हमारे ‘सीनियर’ जनप्रतिनिधियों (सांसदों, विधायकों) में भी बहुत से ऐसे होते हैं, जो नहीं चाहते कि चुनाव जल्दी हों। जब स्थानीय निकायों और पंचायती राज संस्थाओं में चुने हुए जन प्रतिनिधि नहीं होते तो परोक्ष रूप से इन वरिष्ठ जनप्रतिनिधियों के अधिकारों का विस्तार हो जाता है।

सबसे ज्यादा परेशानी आम जनता को होने वाली है। उसकी छोटी-छोटी सड़क, नाली, रोशनी, साफ-सफाई, सड़कों की समस्याओं का त्वरित हल अब मुश्किल हो जाएगा। अफसरशाही की रुचि बड़े निर्माण कार्यों में ज्यादा होती है।

लोकतंत्र में स्थानीय निकायों जैसी संस्थाओं का मजबूत होना आवश्यक है, तभी इसके मूल्यों का निचले स्तर तक विस्तार हो पाएगा। इनके चुनाव टालने की कोशिश बताती है कि या तो किसी न किसी की नीयत में खोट है या पराजय का भय!