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प्रवाह : तिराहे पर कांग्रेस

Pravah Bhuwanesh Jain column: राहुल गांधी की संसद सदस्यता रद्द होने, और उसके बाद कांग्रेस के मौजूदा हालात और विकल्पों पर केंद्रित 'पत्रिका' समूह के डिप्टी एडिटर भुवनेश जैन का यह विशेष कॉलम- प्रवाह

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राहुल गांधी की संसद सदस्यता रद्द

प्रवाह (Pravah): काश- राहुल गांधी ने हिन्दी कहावतें पढ़ी होतीं। ‘कमान से निकला तीर और जुबान से निकले शब्द कभी वापस नहीं आते’। इस कहावत का मर्म उन्होंने समझा होता तो शायद आज जैसी नौबत नहीं आती। जुबान की जरा सी चूक ने उनका राजनीतिक भविष्य चौपट कर दिया। आज यह तो तय हो गया कि वे 2024 का लोकसभा चुनाव नहीं लड़ पाएंगे। इस बात की भी पूरी आशंका है कि कानूनी लड़ाई हार गए तो न सिर्फ दो साल जेल में रहना पड़ेगा, बल्कि अगले 8 साल कोई भी चुनाव नहीं लड़ पाएंगे।


कांग्रेस और अन्य राजनीतिक पार्टियाें के नेता भाजपा पर राजनीतिक द्वेषता से की कार्रवाई करने का आरोप लगा रहे हैं। नेताओं को राजनीति से प्यार है, तो क्या उन्होंने दूसरी कहावत नहीं सुनी- ‘प्यार और युद्ध में सब कुछ जायज है।’

बल्कि , इतिहास टटोलें तो स्वयं राहुल गांधी के परिवार के पूर्व प्रधानमंत्री कई ऐसे कदम उठा चुके हैं जिन्हें नैतिक रूप से जायज नहीं ठहराया जा सकता- चाहे आपातकाल हो, विपक्षी नेताओं को जेल में डालने के मामले हों या चुनी हुई राज्य सरकारों को बर्खास्त करने की कार्रवाई हो।

आज भारत ही नहीं, दुनिया भर में राजनीति में नैतिकता की बात करना बेमानी हो चुका है। सत्ता हासिल करने और उसमें बने रहने के लिए, जिसे जो दांव समझ में आता है- चलता है। चाहे वह जायज हो या नाजायज। देश में दशकों तक राज करने वाली कांग्रेस और उसके नेता इसे नहीं समझते तो इसे उनकी अपरिपक्वता या नासमझी ही माना जाएगा।

राहुल गांधी जिस तरह बिना सोचे-समझे बोलते रहे हैं- उसके अनेक उदाहरण सामने आते रहे हैं। सूरत की अदालत का फैसला आ चुका, अभी उस मामले की तलवार भी लटकी हुई हैं, जिसमें उन्होंने महात्मा गांधी की हत्या को लेकर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पर टिप्पणी की थी।

प्रेस कॉन्फ्रेंस में एक अध्यादेश की प्रति फाड़ कर भी वे इसी तरह की अपरिपक्वता का उदाहरण पेश कर चुके हैं। विदेश यात्रा के दौरान भाषणों के विवादास्पद अंश भी सुर्खियों में आ चुके हैं।

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लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिए सत्ता पक्ष के साथ मजबूत विपक्ष भी बेहद आवश्यक है। भारत की जनता कांग्रेस की ओर इसी आशा से देखती है कि कम से कम वह स्वयं को मजबूत विपक्ष तो साबित करके दिखाए। लेकिन उसे बार-बार निराशा ही हाथ लग रही है।

राजनीति एक ऐसा जंगल है- जिसमें रहने वाले दो जन्तु एक-दूसरे से सहृदयता की उम्मीद नहीं कर सकते। आज के युग में सत्ता के संघर्ष में जुटे दो दलों की स्थिति ऐसी ही होती है। इसलिए ‘राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता’, ‘बदले की कार्रवाई’ जैसे आरोप आज के समय बेमानी है।

मायने इसी बात के हैं कि आप कितनी समझदारी, कितनी परिपक्वता और कितनी चतुराई से रणनीति बनाते हैं और आगे बढ़ते हैं। धर्म और नीति कुछ भी हो, पर आज का कड़वा सच यही है।

आज राहुल गाधी दोराहे पर खडे़ हैं तो इसके मुख्य जिम्मेदार वे स्वयं या उनके सलाहकार हैं। उनको स्वयं को ही नहीं, पूरी कांग्रेस और विपक्षी एकजुटता के पूरे प्रयासों को करारा झटका लगा है। राहुल से ज्यादा ‘समझदार’ तो अरविंद केजरीवाल निकले जो माफी मांगकर इसी तरह की स्थिति में फंसने से बच गए।

लगता तो ऐसा है कि पूरी कांग्रेस में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं बचा जो देश के कानूनों के बारेे में और उनकी लपेटे में आने से बचने के बारे में राहुल को सलाह दे सके। या यह भी हो सकता है कि सलाह दी गई हो, किन्तु उन्होंने मानी नहीं हो।

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कन्याकुमारी से कश्मीर तक की राहुल की पदयात्रा के बाद लगने लगा था कि कांग्रेस सही रास्ते पर बढ़ रही है, लेकिन सूरत कोर्ट के फैसले ने सब पर पानी फेर दिया। अब भी देखना यह होगा कि इस संकट को कांग्रेस किस तरह लेती है। तीन रास्ते है।

पहला-भाजपा पर मात्र जुबानी हमले कर अपनी भड़ास निकालती रहे। गांधी परिवार के सहारे चलती रहे, लेकिन राष्ट्रीय राजनीति भूल कर राज्यों में सिमट जाए। दूसरा- इस संकट को अवसर में बदले। कांग्रेस में ढंग से सोचने वालों और रणनीति बनाने वालों को आगे लाए।

छद्म नेताओं से पीछा छुड़ाए। राहुल गांधी की संभावित जेल यात्रा को सहानुभूति लहर में बदले और विरासत में ‘दंभ’ का त्याग करे।

भारत की राजनीति का इतिहास गवाह है कि जेल यात्राओं के बाद राजनीति में सफलता के अवसर बढ़ जाते हैं- गांधी, नेहरू, वाजपेयी, केजरीवाल जैसे अनेक उदाहरण सामने हैं। तीसरा रास्ता तो बहुत आसान है- आज वाले रास्ते पर चलते हुए अपरिपक्व निर्णय लेती रहे और अपनी बर्बादी का तमाशा देखती रहे।
bhuwan.jain@epatrika.com

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