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गर्भकाल में ईश्वर-जीव संवाद

नवरात्र पूजन में दुर्गा एवं उसके शक्ति रूपों-काली, लक्ष्मी, सरस्वती (सभी के नामों से पूर्व ‘महा’ लगाकर) का स्मरण-अर्चन का कार्य होता है। दुर्गा को ‘परा’ प्रकृति कहा जा सकता है। उसके तीनों स्वरूप भी अक्षर सृष्टि के ही अंग हैं। अक्षर ही परा है, क्षर अपरा है।

Nov 28, 2020 / 08:04 am

Gulab Kothari

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– गुलाब कोठारी

नवरात्र पूजन में दुर्गा एवं उसके शक्ति रूपों-काली, लक्ष्मी, सरस्वती (सभी के नामों से पूर्व ‘महा’ लगाकर) का स्मरण-अर्चन का कार्य होता है। दुर्गा को ‘परा’ प्रकृति कहा जा सकता है। उसके तीनों स्वरूप भी अक्षर सृष्टि के ही अंग हैं। अक्षर ही परा है, क्षर अपरा है। सृष्टि के प्रारंभ का सम्पूर्ण वर्णन प्रलयकाल का है। सृष्टि का पूर्ण लय हो जाने के कारण ब्रह्म पुन: मूल स्वरूप में लौट आता है। वही ब्रह्मा बनकर अगले-अगले सृष्टिकाल की प्रतीक्षा करता है।
काली मूल-शक्ति-स्वरूपा, अर्द्धनारीश्वर रूपा, दक्षिण हाथों में अभयमुद्रा एवं वर मुद्रा शिव रूप है। वाम हाथों में खड्ग एवं नर मुण्ड हैं। विद्या और अविद्या का ही स्वरूप है। दाहिना पांव शवदेह पर, उन्मेष दृष्टि से चेतना को जाग्रत करती हुई जन्म सूचक। चिता-ज्वाला-शवदाह मृत्यु सूचक। प्रकृति का मूल कार्य जन्म और मृत्यु से जुड़ा है। मध्य का सम्पूर्ण कर्मक्षेत्र ही उसके नियंत्रण में है।
काली दिगम्बर रूप में, मुण्डमालायुक्त परा रूप प्रकृति है, जबकि आभूषण-शृंगार युक्त स्वरूप में अपरा प्रकृति बन जाती है। ब्राह्मी-चामुण्डा-माहेश्वरी आदि इसी के स्वरूप हैं। काली सौम्या होने से ‘स्वाहा’ स्वरूपिणी है। जीवन में चेतना को गतिमान रखती है। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड इसका कार्यक्षेत्र है। शिव के साथ-साथ यह भी गंगाधर तथा चन्द्रमौली हैं। शिव को भीतर समेटे जन्म से मृत्यु तक कर्म से युक्त रहती हैं।
सृष्टि के अगले सर्ग का आरम्भ शक्ति के जागरण पर ‘इच्छा’ रूप में होगा, जो कि ‘एकोहं बहुस्याम्’ के रूप में प्रसिद्ध है। यही दाम्पत्य भाव प्राणी युगल (मानव सहित) में भी इसी रूप में कार्यरत रहता है। अपने पिछले सृष्टि शरीर को छोड़कर जीव भी नई सृष्टि की प्रतीक्षा में भ्रमण करता है। शक्ति की उन्मेष दृष्टि ही ‘अव्यय’ पुरुष के निर्माण में हेतु बनती है।
अव्यय पुरुष एक ईश्वरीय बिन्दु भाव है। जो क्षीर सागर में स्पन्दित होता है। यही ब्रह्मा है, जो विष्णु की नाभि में प्रतिष्ठित होता है। गर्भाशय में जीव की यह प्रथम अवस्था है। चारों ओर का सम्पूर्ण क्षेत्र अंधकारमय है, जलमग्न है। जीव का स्पन्दन मात्र सुनाई देता है। ब्रह्म की यहां जीव संज्ञा है, क्योंकि जीव अविद्या के वश में अपने पिछले कर्मफलों को भोगने के लिए आ रहा है। आदि ब्रह्मा तत्त्व रूप में अव्यय होता है। उसके हृदय रूप में तीन अक्षर प्राण-ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र-गतिमान रहते हैं। वह सम्पूर्ण रूप से अमृत-सृष्टि होती है। क्षर सुप्त रहता है। ब्रह्मा का स्वभाव (प्रकृति) ही क्षर-अक्षर है। गर्भावस्था में क्षर पूर्ण रूप से क्रियाशील रहता है। यह मृत्युलोक की (मत्र्य) सृष्टि होती है। यहां जीव का आत्मा षोडशी तथा मन-प्राण-वाक् रूप होती है।
गर्भावस्था में भी जल समुद्र राजा वरुण के ही अधीन होता है। वही असुरों (अविद्या) का भी अधिष्ठाता है, जो कि पुनर्जन्म का हेतु (उपादान कारण) है। जल के स्वामी विष्णु की नाभि में जीव ब्रह्मा रूप में स्पन्दित रहता है। सम्पूर्ण गर्भकाल में जीवन पर आसुरी शक्तियों का आक्रमण निरन्तर होता रहता है। ये ही मधु-कैटभ, शुंभ-निशुंभ-रक्तबीजादि नामों से उल्लेखित हैं। ये ही मोह, क्रोध, लोभ आदि प्रवृत्तियां हैं, जो जीव को पुन: अपने वश में करने को तत्पर दिखाई पड़ती हैं। अंधकार में केवल दैत्य ही प्रबल होते हैं, देव सुप्त रहते हैं; अत: असुर ही सदा विजयी होते हैं।

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