
Supreme Court
गंभीर दाग वाले व्यक्तियों को चुनाव लडऩे से रोकने सम्बन्धी याचिकाओं पर सर्वोच्च न्यायालय ने मंगलवार को अपना फैसला सुना दिया। निश्चित रूप से माननीय न्यायालय ने जो फैसला सुनाया है, वह लोकतांत्रिक मर्यादाओं और मौजूदा कानूनों के दायरे में है और इसमें न्यायालय की नीयत रत्तीभर भी ऐेसे दागी राजनेताओं को राहत देने की नहीं रही, फिर भी उन्हें राहत तो मिल गई। याचिकाकर्ता चाहते थे कि, जिन पर गंभीर किस्म के आरोप हों, उन्हें चुनाव लडऩे के अयोग्य ठहरा दिया जाना चाहिए। इसमें कुछ गलत भी नहीं है। आखिर हत्या, बलात्कार अथवा लूट के किसी आरोपी को चुनाव लडऩे की छूट क्यों होनी चाहिए? सारे गवाह पक्षद्रोही हो जाते हैं। किसी को दिखना तो किसी का सुनना बंद हो जाता है। एक बार 'माननीय' बन गए तब फिर आरोप सिद्ध होना ही 'बड़ा काम' हो जाता है।
करीब सात साल लम्बी सुनवाई के दौरान जनता जहां हर दिन ऐसे आरोपियों पर प्रतिबंध लगने की आस लगाए रही, वहीं अन्तिम निर्णय में न्यायालय ने यह काम संसद पर छोड़ दिया। यह सही है कि, लोकतंत्र में विधायिका को सर्वोपरि माना जाता है लेकिन उतना ही सच यह भी है कि, जब विधायिका अपने दायित्त्व को पूरा नहीं निभा पाती या ढंग से नहीं निभाती, तब आदमी को एक ही सहारा नजर आता है, और वह है, न्यायपालिका। इसे इस नाते से पुख्ता माना जा सकता है कि, अगर संसद पहले ही कानून बना देती तो याचिकाकर्ताओं को, राजनीति से दागियों को बाहर करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंचने की जरूरत ही क्यों पड़ती? अपने निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने राजनीतिक दलों से भी उम्मीद की है कि, वे अपने उम्मीदवारों का आपराधिक ब्योरा जनता में जोर-शोर से प्रचारित करें। लेकिन क्या वे ऐसा करेंगे? शायद नहीं। वजह सारे राजनीतिक दल और राजनेता, जैसे भी हो, चुनाव जीतना चाहते हैं। इसमें, उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि, कौन दागी है और कौन बागी या बैरागी।
हर पार्टी बात तो राजनीति में शुचिता और शुद्धता की करती है, लेकिन जब उम्मीदवारों के चयन की बात आती है तो सभी को 'जिताऊ' चाहिए। ऐसे में कोई दीन-हीन, शरीर से कमजोर तो उनकी पसन्द हो ही नहीं सकता। उन्हें चाहिए — भुजबल और धनबल वाले। यही आज की भारतीय राजनीति का सच है। सरकार ने उसे कुछ दिन पहले स्वयं देश के सबसे बड़े न्यायालय में यह कहते हुए उजागर किया है कि, चुनाव खर्च की सीमा पर कोई पाबंदी लगाना ठीक नहीं है। ऐसे में सर्वोच्च न्यायालय की यह उम्मीद कि संसद दागी राजनेताओं के चुनाव लडऩे पर पाबंदी का कानून बनाए, कुछ ज्यादा ही लगती है। आज राजनीति, राजनेता और राजनीतिक दल, सब मिलकर जिस तरह लोकतंत्र को कलंकित करने में लगे हैं, देश की जनता को उम्मीदें केवल न्यायपालिका से ही है। उसे 'न्यायिक सक्रियता' अथवा विधायिका के अधिकार क्षेत्र में दखल जैसे आरोपों की चिंता किए बिना इस उम्मीद को पूरा करना चाहिए। आखिर उसकी भी प्रतिबद्धता है तो देश की जनता के लिए ही।

बड़ी खबरें
View Allओपिनियन
ट्रेंडिंग
