योग दर्शन में पांच नियम आते हैं – शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्राणिधान। ये पांच नियम जीवन को व्यवस्थित और अनुशासित करने के लिए हैं। इन पांच नियमों में एक है – स्वाध्याय। अर्थात् स्वयं का अध्ययन। स्वयं को जानना स्वाध्याय कहलाता है। स्वाध्याय के नाम पर बहुत से लोग कह देते हैं कि आध्यात्मिक ग्रंथ पढऩे चाहिए, धर्म-शास्त्र पढऩे चाहिए, उपनिषद् पढऩे चाहिए और इस तरह स्वाध्याय का मतलब बाह्य अध्ययन से लगाया जाता है। शास्त्र-अध्ययन को ही स्वाध्याय कहा जाए, यह इसका केवल एक पक्ष हुआ। लेकिन अगर शब्दों को ठीक से समझा जाए, तो स्वयं का अध्ययन स्वाध्याय कहलाता है। तब आत्म-परीक्षण, आत्म-निरीक्षण, आत्म-चिंतन और आत्म-शोधन स्वाध्याय के अंग बनते हैं। सामान्य रूप से लोग स्वाध्याय को ज्ञान अर्जित करने का साधन मानते हैं। अपनी इच्छाओं, कमजोरियों, सामथ्र्यों, प्रतिभाओं और महत्त्वाकांक्षाओं को जानना, समझना और उन्हें व्यवस्थित करना, यह असली स्वाध्याय है।