प्रकृति सत्त्व-रज-तम स्वरूपा है। ये प्रकृति के आठों रूप त्रिगुणात्मक हैं। ये ही क्षर पुरुष या स्थूल जीवन का संचालन करते हैं। क्षर पुुरुष की पांचों कलाएं भी अपरा प्रकृति से ही संचालित होती हैं। यही मूल में कर्म क्षेत्र है। कर्मों के फल भी इन्हीं गुणों से संचालित होते हैं। अत: फल भी और नई योनियां भी कर्मों के आधार पर ही तय होती हैं। अक्षर पुरुष की पांच कलाओं में से ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र ही प्राण-आप-वाक् का रूप लेते हैं। अन्न-अन्नाद ही यज्ञ-सृष्टि का या अग्नि सोमात्मक सृष्टि का रूप बनते हैं। इसी के पंचीकरण से सृष्टि आगे बढ़ती है।
सृष्टि का अन्तिम छोर क्षर भाव ही है, स्थूल सृष्टि ही है। यज्ञ कर्म भी माया-आधारित कर्म ही है। विवाह भी माया द्वारा ब्रह्म को घेरने का उपक्रम ही है। प्रजनन यज्ञ मेंं पुरुष ही पर्जन्य रूप वर्षण करता है। माया रूपी धरती मां ही ब्रह्म को ग्रहण करती है, पोषित करती है। जो बात पकड़ में नहीं आती वह यह कि माया कहीं बाहर नहीं रहती। चूंकि वह तो ईश्वर की कामना है, अत: उसी के भीतर रहती है। कामना का आश्रय मन होता है। ईश्वर का मन ही अव्यय पुरुष का मन है। मूल में वही मन ईश्वर कहलाता है। कामना इसी मन को प्रभावित करके सृष्टि या मुक्ति की ओर प्रेरित करती है। कामना ब्रह्म है, मन ब्रह्म है तथा सृष्टि भी ब्रह्म ही है।
इस सृष्टि यज्ञ में पत्नी कामना बनकर अष्टधा प्रभाव डालती है। यही मूल में गृहस्थाश्रम का स्वरूप है। पत्नी का ही साम्राज्य है-घर-परिजन-स्वजन-धर्म और देवपूजन तक। परिवार के जन्म-मरण-परण, रिश्ते-नाते वही संचालित करती है। परिवार के संस्कार, पितर पूजा, रातीजगा सभी उसी के नियंत्रण में होते हैं। पत्नी के प्रभावी रहते अक्षर में प्रवेश सहज नहीं है।
वानप्रस्थ में पत्नी का एक पक्ष पीछे छूट जाता है। अक्षर सृष्टि के द्वार खुलने का समय आ जाता है। व्यक्ति हृदय में प्रतिष्ठित हृद् प्राणों की ओर अग्रसर होता है। ये स्थूल के नियन्ता देव हैं। इनकी गतिविधि ब्रह्मा प्राण से जुड़ी होती है। ध्यान-साधना से ही उस मार्ग पर गति होती है। स्थूल शरीर, इन्द्रियां, विषय, श्वास-प्रश्वास सब मन्द पड़ जाते हैं। विचार शान्त होने लगते हैं। व्यक्ति भीतर यात्रा करने का प्रयास करता है। आत्मा की ओर मुड़ता है। स्थूल जगत पीछे छूटने लगता है। ऊध्र्व यात्रा शुरू होती है।
दाम्पत्य भाव व्यष्टि भाव से हटकर समष्टि की ओर गति करता है। सास-ससुर बनने का काल है। दादा-दादी/नाना-नानी की भूमिका भी मन को संवेदनशील और भावनात्मक भूमि पर प्रतिष्ठित कर देते हैं। अध्यात्म में संत-सेवा, तीर्थ-यात्रा, नई पीढ़ी में संस्कार निर्माण जैसे कार्य हाथ में लेने लगते हैं। हृद् प्राणों की तीनों शक्तियां- महाकाली, महालक्ष्मी तथा महासरस्वती- क्षर ब्रह्म के प्राण-आप-वाक् को अपने प्रभाव में लेने लगती हैं। स्वप्न बदल जाते हैं।
वैसे तो माया गृहस्थाश्रम से बाहर आने ही नहीं देती, फिर भी व्यक्ति के पिछले जन्मों के कर्म, उसका वर्ण और गुणों का प्रभाव स्पष्ट होने लगता है। शब्द-नाद ब्रह्म मंत्र जपादि के रूप में प्रवेश करने लगते हैं। अन्न ब्रह्म भी शनै:शनै: सात्विक होने लगता है। स्त्री के लिए ये कार्य आसान नहीं होता। वह तो स्वयं ही कामना का अवतार होती है। गुरु का सान्निध्य, सत्संग, उपासना के क्षेत्र की गतिविधियां वातावरण के अनुरूप विस्तार पाती हैं। शिक्षित व्यक्ति के लिए वानप्रस्थ आता कम ही है। उसे मुक्ति की तैयारी करनी ही नहीं होती। वानप्रस्थ तो मूल में लौट जाने की तैयारी का ही काल है।
जिस प्रकार श्रवण-मनन-निदिध्यासन का आरम्भ गृहस्थाश्रम में हो जाता है, उसी प्रकार ध्यान-जप-गुरुसेवा की प्रतिष्ठा वानप्रस्थ में होने लगती है। प्राणायाम के माध्यम से देवसृष्टि, यज्ञादि के माध्यम से परोक्ष आराधना के क्रम बनने लगते हैं। आज शिक्षा और जीवनशैली ने व्यक्ति को कामना में जकड़ रखा है। कामना का आकलन और कामना मुक्ति उसके विषय ही नहीं रहे। दाम्पत्य भाव का क्रम तो अब टूटता ही नहीं। इसके विपरीत उसका भटकाव बढ़ता जा रहा है। वातावरण भी चारों ओर, फोन-टीवी आदि के कारण, काममय बन रहा है। काम जीवन में पवित्रता खो बैठा। लोग समूहों में इसको मनोरंजन का विषय बनाने लगे। दाम्पत्य भाव का इससे अधिक विकृत रूप और क्या हो सकता है? वानप्रस्थ तो इन आवरणों के बीच पूर्णत: ओझल हो गया। व्यक्ति के प्राण शक्ति (क्षुधा) से शरीर से बंध गए। मुक्ति साक्षी होने की उसे आवश्यकता ही नहीं लगती।
काम अकेले पुरुष का विषय नहीं है, युगल चाहिए। तभी स्वयंभू ब्रह्मा के लोक में सृष्टि नहीं होती और वे जगत के सृष्टा भी हैं। जब उनको समझ में आया कि अकेले काम नहीं चलेगा, तब उन्होंने जननी को पैदा किया। यही सृष्टि की विकास यात्रा बन गई। जननी और कामना का जोड़ा बन गया। इस जाल में ब्रह्मा जी फंस गए और आज तक आगे से आगे फंसते ही जा रहे हैं। गीता कह रही है-
ध्यायतो विषयान्पुंस: सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात् संजायते काम: कामात्क्रोधोऽभिजायते
(गीता 2.62)
क्रोधाद्भवति संमोह: संमोहात्स्मृतिविभ्रम:।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।
(गीता 2.63) अर्थात्- विषयों का ध्यान करने से पुरुष का विषयों के साथ संग हो जाता है। संग से आगे काम उत्पन्न हो जाता है और काम से क्रोध उत्पन्न होता है। क्रोध से सम्मोह तथा सम्मोह से स्मृतिविभ्रम हो जाता है। स्मृति के विभ्रम से बुद्धि नष्ट हो जाती है और बुद्धि के नाश से मनुष्य नष्ट हो जाता है।
इस झगड़े की जड़ है, काम- संगात् जायते काम:। काम माया के साथ-साथ बढ़ता ही जाता है और आगे से आगे परिणाम सामने है। अन्तिम परिणाम है-प्रणश्यति अर्थात् विनाश। वानप्रस्थ ही एकमात्र इस ‘प्रणश्यति’ से मुक्ति का मार्ग है। नई जीवनशैली आपको गृहस्थ ही बनाए रखेगी। अन्तिम सांस तक।
संन्यास आश्रम तो शायद संन्यासी का भी छूटने जा रहा है। भारत में ही संन्यास का शुद्ध स्वरूप नजर आता है। अन्यत्र तो माया का जाल सम्पूर्ण भोगकाल का रूप ले चुका है। कहीं बहुविवाह की परम्परा है, तो कहीं संन्यास आश्रम में विवाह हो रहे हैं। इस बात से जीवन में माया की अनिवार्यता समझ सकते हैं। जबकि इस काल में माया बल शक्ति रूप में कार्यरत दिखाई देना चाहिए था, किन्तु आज भी प्रकृति स्वरूप में अटके है। कर्म स्थूल होने से आत्मा तक नहीं पहुंच सकता। इसमें निहित शक्ति ही अक्षर संस्था में प्रवेश कर सकती है। शक्ति की सुप्त अवस्था में कर्म का स्वरूप नहीं बदलने वाला। नवरात्रि भी शक्ति जागरण का ही पर्व है। शक्ति स्वरूप का ज्ञान व जागरण आवश्यक है। अन्यथा काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद व मात्सर्य इन छह शत्रुओं के विनाश के स्थान पर उनका संवद्र्धन होने से संसारचक्र में फंसे रहना नियति बन जाएगा।
क्रमश: gulabkothari@epatrika.com