
अब महा ग्राम और महा कस्बे की अवधारणा का महत्त्व समझें
सुधीर मोता
समसामयिक विषयों के टिप्पणीकार
ईज ऑफ लिविंग-2022 की रिपोर्ट आ गई और हम जीने में इतने व्यस्त थे कि हमारा ध्यान ही नहीं गया। इसमें कोई संदेह नहीं कि हरेक को अपना शहर प्यारा होता है। बाहर जाने पर पुन: अपने शहर लौटने की ललक हिलोरे मारती है। सबसे अनोखा सच तो यह है कि इन शहरों में रह रहे लोगों में बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है, जिनका जन्म और प्रारंभिक जीवन दूसरी जगह का है। वे यहां शिक्षा या रोजगार के लिए आ बसे हैं। यह सर्वे जिन बड़े शहरों में हुआ है वे सचमुच में ऐसे थैलों की तरह हैं जिनमें क्षमता बढ़ाने के उद्देश्य से बार बार कुछ जेबें लगा दी जाती हैं। इस तरह इनमें ज्यादा सामान भरा जा सकता है। यह सर्वे इस बात का होता है कि इन थैलों में लगी जेबें सुदृढ़ हैं या नहीं। इनमें और कितना विस्तार किया जा सकता है।
नगरों और इनके विकास में प्रकृति की भूमिका कालांतर में अप्रासंगिक होती गई। हमारी कसौटी पर अब यह बात है कि यहां आवागमन के लिए कितने प्रकार के साधन हैं, पानी नलों से पहुंचता है, हवा पिछले कुछेक सालों में कितनी बेहतर या बदतर हुई। कोई शहर ऑटोमोबाइल सिटी तो कोई आइटी प्रौद्योगिकी तो कोई कोचिंग हब की तरह जाना जाता है। ये बात आते ही इन शहरों के लोग गर्व से फूले नहीं समाते। शेष समय ये महंगे संसाधनों, दुरूह यातायात, महंगी चिकित्सा, बढ़ते किराए के रोलर कोस्टर में नित झूलने के आदी हो चुके होते हैं। छोटे-छोटे बच्चे दो घंटे की यात्रा स्कूल पहुंचनेे के लिए नित्य करते हैं। उनके माता-पिता भी अपने कारोबार तक आने-जाने में घंटों यात्रा करते हैं। इन के टिफिन में बंद भोजन उन पदार्थों से बना होता है, जो रसायनों या प्लास्टिक आवरणों की कथित सुरक्षा में कई दिन पहले पैक किए जाते हैं। प्रकृति की गोद में पैदा हुआ अन्न कीटनाशक दस्तों की कड़ी सुरक्षा में होता लंबी यात्रा करता हुआ आता है। ग्लोबल सिटीज इंडेक्स नामक एक और वैश्विक सर्वे दुनिया के चुने हुए शहरों पर काम करता है कि किस तरह वहां और धन, जन और मन को आकर्षित किया जा सकता है। नगर-सर्वे की श्रेष्ठता सूची में जो सबसे ऊपर रहा वह बेंगलूरु शहर हाल के यातायात संबधी सर्वे में सबसे बुरा स्थान पा गया । ताज्जुब नहीं कि हम घर पहुंचने में देरी को जीवन की सरलता में बाधक नहीं मानते क्योंकि इन नगरों में घर से सैकड़ों हजारों मील दूर आ बसी युवा और अधेड़ आबादी ही बहुसंख्यक है। मुंबई की लोकल ट्रेनों में ठूंस ठूंस कर भरे या पुणे गुरुग्राम, नोएडा या बेंगलूरु की सड़कों पर फंसे लोग यदि रोज घंटों बर्बाद कर रहे हैं तो क्या हुआ? फिर भी उनका जीवन ईज ऑफ लिविंग में सबसे आगे है?
कोरोना काल की सबसे बड़ी सीख यही है कि कोई भी कारोबार कहीं से भी किया जा सकता है यहां तक कि कुछ मामलों में तो घर से भी। इसके लिए शहरों में भीड़ जुटान की जरूरत नहीं है, लेकिन हम नहीं समझते। एक सर्वे इस बात पर भी होना चाहिए कि महानगरों में आ बसे लोगों के अपने गृह ग्राम के सूनेपन में ईज ऑफ लिविंग का क्या स्तर है। इस तरह के हर सर्वे को बुजुर्गों के एकाकीपन की घातकता और युवा भीड़ के सं़त्रास के मन पर प्रभाव से जोड़ कर संचालित करते हुए देखा जाना चाहिए। प्रकृति द्वारा जनसंख्या को आवंटित भूक्षेत्रों के तार्किक गणित को लगातार क्षति पहुंचाते जाने की प्रवृत्ति को रोकने का समय आ गया है। अब गांवों, कस्बों और छोटे नगरों की ओर सर्वे का रुख करेंगे तो बड़े शहरों को अपने आप राहत मिल जाएगी। भारत एक बड़ी आबादी का देश है और पारिवारिक मानसिकता का भी , इसके लिए अपनी गृहस्थी की जमावट के हमें अपनी तरह के मानदंड अपनाने होंगे। क्या हमारी शब्दावली में महानगर के साथ महा ग्राम या महा कस्बा जैसे शब्द जुड़ सकेंगे?
Published on:
05 Mar 2023 09:42 pm
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