
वर्ष 2021 के दादा साहब फाल्के लाइफटाइम अचीवमेंट पुरस्कार से होंगी सम्मानित, 69वें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार समारोह के दौरान।
विनोद अनुपम
राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार प्राप्त कला समीक्षक
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कहते हैं नाम में क्या रखा है, लेकिन कुछ नाम अपने अर्थ को इस तरह सार्थक करते हैं कि कोई विकल्प आप सोच ही नहीं सकते। वहीदा, यानी लाजवाब, कुछ ऐसे नाम में शुमार किया जा सकता है। शायद इसीलिए हिन्दी सिनेमा में वहीदा रहमान को पहली बार अवसर देने वाले गुरुदत्त ने जब युवावस्था में कदम रख रही वहीदा से नाम बदलने का आग्रह किया तो उन्होंने पूरे आत्मविश्वास के साथ गुरुदत्त को इनकार कर दिया।
विभाजन के बाद यह वह दौर था जब हिंदी दर्शकों के बीच स्वीकार्यता के लिए अधिकांश कलाकार दिलीप कुमार, मीना कुमारी की तरह नाम बदल कर आ रहे थे। पर वहीदा रहमान ने कहा द्ग सफलता वहीदा को हासिल करनी है और वहीदा के नाम से ही करनी है। यह नाम मेरे पिताजी ने बड़े प्यार से रखा है, मैं इसे नहीं बदल सकती। वहीदा ने आने वाले दिनों में अपने नाम की सार्थकता ही साबित नहीं की, अपनी प्रतिभा से दर्शकों को उसे स्वीकार करने के लिए बाध्य भी किया।
वहीदा के लिए हिंदी सिनेमा के दरवाजे खोलने वाले गुरुदत्त थे, जो उस समय ‘सी.आई.डी.’ के लिए देव आनंद के साथ कोई एक नई अभिनेत्री को तलाश कर रहे थे जो नेगटिव कैरेक्टर को जस्टिफाई कर सके। कहा जा सकता है इसी फिल्म में काम करते हुए गुरुदत्त को कहीं न कहीं वहीदा में कोई स्पार्क दिखा होगा कि वे गुरुदत्त की फिल्मों की जरूरत बन गईं। ‘प्यासा’ जैसी महत्त्वाकांक्षी फिल्म में गुरुदत्त ने वहीदा को एक जटिल भूमिका सौंपी, जिसे उन्होंने पूरी सहजता से निभाया। गुरुदत्त की अगली फिल्म ‘कागज के फूल’ हालांकि अपने तरह के कथानक के कारण दर्शकों को नहीं भाई, लेकिन यहां भी वहीदा के अभिनय की तारीफ हुई। वहीदा ने बाद में हिंदी सिनेमा के तमाम बड़े सितारों और बड़े निर्देशकों के साथ काम किया लेकिन गुरुदत्त की श्वेत-श्याम फिल्मों में उनके चरित्र में जो चमक थी, वह दोहराई नहीं जा सकी।
वहीदा रहमान गुरुदत्त की गंभीर फिल्मों की ताकत बनीं, तो देव आनंद की म्यूजिकल प्रेम कहानियों की भी पहचान बनी रहीं। ‘सी. आई.डी.’ के अलावा देव आनंद के साथ उनकी जोड़ी ने ‘सोलहवां साल’, ‘काला बाजार’, ‘प्रेम पुजारी’, ‘बात एक रात की’ और ‘गाइड’ जैसी सफल फिल्में दीं। ‘गाइड’ देखकर लेखक आर.के. नारायण ने लिखा था, ‘रोजी को जैसा मैंने लिखा था, वहीदा रहमान ने परदे पर साकार कर दिया। यही थीं वहीदा, भूमिका कोई भी हो उनके लिए आसान हो जाती थी। उनके व्यक्तित्व में एक खास तरह की कोमलता थी, जो हरेक चरित्र में उन्हें आसानी से ढाल देती थी। उनकी प्रतिभा की ही धमक थी कि सत्यजीत रे अपनी बांग्ला फिल्म ‘अभिज्ञान’ की मुख्य भूमिका के लिए उन्हें कोलकाता ले गए।
वहीदा रहमान ऐसी एकमात्र अभिनेत्री होंगी, जिन्होंने जिस सक्रियता के साथ नायिका की भूमिकाएं निभाईं, उसी सक्रियता के साथ चरित्र भूमिकाओं में भी ‘अदालत’, ‘कभी कभी’, ‘त्रिशूल’, ‘नमकहलाल’, ‘मशाल’ जैसी उल्लेखनीय फिल्में अपने प्रशंसकों को दीं। कुछ वर्षों के अंतराल के बाद जब वे एक बार फिर ‘दिल्ली 6’ और फिर ‘रंग दे बसंती’ में आईं तो एक बार फिर से अहसास हुआ कि अभिनय किस तरह उनकी रग-रग में पैवस्त है। शैलेन्द्र की ‘तीसरी कसम’ में हीरामन की बैलगाड़ी में हीराबाई को मेले तक पहुंचाने के लिए बैठाया जाता है। टप्पर गाड़ी में पीछे से आ रही आहट से हीरामन डर जाता है, क्या पता कोई भूत तो नहीं है। वह भूत के उल्टे पांव देखने पीछे पलटता है तो हीराबाई के चेहरे की एक झलक दिख जाती है, और फिर ‘ईस्स... यह तो परी है।’ वहीदा रहमान हिन्दी सिनेमा की परी ही हैं, जिनमें संवेदना भी है, सौंदर्य भी।
Published on:
02 Oct 2023 11:18 pm
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