
आखिर डिस्चार्ज की शक्तियों का इस्तेमाल क्यों नहीं होता
हेमंत नाहटा
अधिवक्ता, राजस्थान
उच्च न्यायालय
सुप्रीम कोर्ट ने बाबूभाई भीमाभाई बोखीरिया बनाम स्टेट ऑफ गुजरात निर्णय में कहा है कि यदि एक भी दोषी व्यक्ति सजा से बच जाए तो न्यायाधीश को निन्दित होना पड़ता है, लेकिन किसी व्यक्ति को सिर्फ ट्रायल के बाद बरी कर देने के लिए ही ट्रायल का सामना करने को मजबूर किए जाने से भी न्याय व्यवस्था की साख भारी संकट में आ जाती है। प्रश्न यह है कि पर्याप्त साक्ष्य नहीं होने पर भी व्यक्ति क्यों पूरी ट्रायल भुगते? सीआरपीसी में धारा 227, धारा 239 व 245 इसी उद्देश्य से दी गई है कि विचारण आगे बढ़ाए जाने के लिए पर्याप्त सामग्री उपस्थित नहीं हो या आरोप पूरी तरह से आधारहीन हों, तो ट्रायल शुरू किए जाने की प्राथमिक स्टेज पर ही आरोपी को डिस्चार्ज कर दिया जाए, ताकि न्याय व्यवस्था पर ऐसे मामलों को ढोने का बोझ नहीं पड़े, जिनमें ट्रायल के बाद सजा होने की कोई प्रथम दृष्ट्या संभावना ही ना हो। देश में लम्बित फौजदारी केस लगभग 3.10 करोड़ हैं। डिस्चार्ज के प्रावधानों का सम्यक उपयोग नहीं करने की आम प्रवृत्ति का विचारण में लम्बित केसेज की संख्या बढ़ाने में पूरा योगदान है। डिस्चार्ज का महत्त्व यूं समझें कि भारत की वर्तमान राजनीति में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले गृह मंत्री अमित शाह को भी 2014 में सोहराबुद्दीन एनकाउंटर केस में डिस्चार्ज किया गया था।
सुप्रीम कोर्ट ने समय-समय पर आरोपी को डिस्चार्ज करने के लिए विभिन्न मापदंड निर्धारित किए हैं। आरोपित धारा के अपराध का गठन करने के लिए आवश्यक अवयवों की अनुपस्थिति इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण है। आरोप यदि प्रथम दृष्ट्या ही असंभाव्य या बेहूदा प्रकृति के या 'कॉमन सेंस' के विरुद्ध हो या पुलिस की कहानी में कोई मूलभूत कमजोरी हो तो चार्ज फ्रेम नहीं किए जाने चाहिए। यदि साक्ष्य से मात्र संशय की स्थिति प्रगट हो, मगर गंभीर संशय की स्थिति प्रकट नहीं होती हो या साक्ष्य पूरी तरह से सही मान लिए जाने पर और आरोपी द्वारा उसका खंडन नहीं किए जाने पर भी सजा दिया जाना संभव ना हो तो भी आरोपी को डिस्चार्ज किया जाना चाहिए। चार्ज फ्रेम करते समय न्यायालय पोस्ट ऑफिस की तरह या पुलिस के माउथपीस के रूप में कार्य नहीं करेगा और न ही पुलिस की कहानी को ध्रुव सत्य ही माना जाएगा। साक्ष्य का संपूर्ण प्रभाव देखा जाएगा, मगर साक्ष्य सही और सुसंगत है या नहीं, इसके लिए गहराई में जाकर साक्ष्य को नापतोल कर नहीं देखा जाएगा। सीआरपीसी की धारा 226 के बाध्यकारी प्रावधानों के तहत लोक अभियोजक का दायित्व है कि वह प्रत्येक आरोप का खुलासा करे और जिस साक्ष्य से ऐसा आरोप साबित किया जाना है, वह न्यायालय को बताए। वही साक्ष्य चार्ज लगाने के लिए काम में जिए जा सकते हैं एवं आरोपी को केवल उसी साक्ष्य के समक्ष डिस्चार्ज किए जाने के लिए अपना कथन धारा 227 की स्टेज पर करना अपेक्षित है, लेकिन विचारण के दौरान ज्यादातर लोक अभियोजकों, अधिवक्ता समुदाय व न्यायालय द्वारा धारा 226 को कभी उपयोग में ही नहीं लिया जाता। लगभग सभी केसेज में आरोपपत्र प्रस्तुत होने पर आवश्यक रूप से चार्ज फ्रेम होना एक सर्व-स्वीकार्य औपचारिक परिपाटी में परिवर्तित हो गया है। परिणामस्वरूप भारी मात्रा मे अनावश्यक मुकदमे कोर्टों में विचारण में चल रहे हंै और जेलें सारहीन ट्रायल भुगत रहे कैदियों से भरी पड़ी हंै। प्राथमिक स्टेज पर ही आरोपी को डिस्चार्ज कर दिए जाने का निर्णय एक गंभीर निर्णय है।
यह एक कटु सत्य है कि ज्यादातर विचारण न्यायालय धारा 226 व 227 की शक्तियों का उपयोग ही नहीं कर रहे हैं, जबकि एक से अधिक आरोपी होने पर डिस्चार्ज किया जा चुका व्यक्ति ट्रायल के दौरान पर्याप्त साक्ष्य आने पर पुन: भी ट्रायल में तलब किया जा सकता है। दूषित पुलिस अनुसंधान के शिकार निर्दोष को अनावश्यक ट्रायल का सामना करके और झूठ को झूठ साबित करके बरी होने में भी लम्बा समय और भारी संसाधन झोंकने पड़ जाते हंै। अधिवक्ताओं को सर्वप्रथम डिस्चार्ज की सम्भावना को गम्भीरता पूर्वक तलाशने के लिए प्रोत्साहित करने व उच्चतर न्यायालयों द्वारा लोक अभियोजकों तथा विचारण न्यायालयों को निराधार चार्ज लगाए जाने की कार्यवाही से हतोत्साहित किये जाने से ही अनावश्यक ट्रायल और उसके दुष्परिणामों को रोका जाना संभव है।
Published on:
01 Sept 2022 09:40 pm
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