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‘वंदे मातरम्’ पर आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति क्यों?

आदर्श स्थिति होती अगर संसद एक स्वर से 'वंदे मातरम्' गाते हुए उसमें निहित राष्ट्रीय भावनाओं को व्यक्त कर विकसित भारत का संकल्प लेती, लेकिन राजनीतिक शह-मात के खेल में ऐतिहासिक अवसर गंवा दिया गया।

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जयपुर

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Opinion Desk

Dec 10, 2025

- राज कुमार सिंह, वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक

बहुदलीय लोकतंत्र में राजनीति प्रबल न हो- यह संभव नहीं, पर हर मुद्दे पर राजनीति अवांछित और खतरनाक प्रवृत्ति है। न तो लंबे संघर्ष और बलिदानों से हासिल आजादी का अमृतकाल संकीर्ण दलगत राजनीति से बच पाया और न ही संविधान लागू होने 75 साल पूरे होने पर हुए आयोजन। वैसा ही परिदृश्य राष्ट्रगीत 'वंदे मातरम्' के 150 साल पूरे होने पर दिख रहा है। राष्ट्र के जीवन में ऐसे ऐतिहासिक मोड़ गौरवशाली विरासत होते हैं, जिनका उपयोग खासकर युवा पीढ़ी को इतिहास से परिचित कराते हुए बेहतर भविष्य का संकल्प लेने के लिए किया जाना चाहिए। विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की यह विडंबना ही कही जाएगी कि ये गौरवशाली क्षण भी दलगत राजनीति के ग्रहण से नहीं बच सके। न तो 'वंदे मातरम्' के 150 साल पूरे होने पर देशभर में हो रहे आयोजन और न ही संसद में इस पर चर्चा, दलगत राजनीति और परस्पर आरोप-प्रत्यारोपों से बच पाई। आदर्श स्थिति होती अगर संसद एक स्वर से 'वंदे मातरम्' गाते हुए उसमें निहित राष्ट्रीय भावनाओं को व्यक्त कर विकसित भारत का संकल्प लेती, लेकिन राजनीतिक शह-मात के खेल में ऐतिहासिक अवसर गंवा दिया गया।

यह राजनीति पूरी तरह अवांछित है, यह इस बात से भी पता चलता है कि 1937 में तत्कालीन राजनीतिक नेतृत्व द्वारा लिए गए फैसले के लिए अब सत्तापक्ष और विपक्ष, एक-दूसरे पर निशाना साध रहे हैं। 'वंदे मातरम्' पर लोकसभा में चर्चा के दौरान सत्ता पक्ष ने इस राष्ट्रगीत में काट-छांट स्वीकार कर देश में विभाजन के बीज बोने के लिए जवाहर लाल नेहरू को जिम्मेदार ठहराते हुए मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस पर तीखे प्रहार किए। मुस्लिम समुदाय में 'वंदे मातरम्' के बढ़ते विरोध के मद्देनजर 1937 में कांग्रेस कार्य समिति द्वारा इस राष्ट्रगीत के पहले दो छंद ही भविष्य में गाने संबंधी निर्णय के लिए सिर्फ नेहरू को जिम्मेदार ठहराना पूरी तरह इसलिए सही नहीं है क्योंकि नेहरू उस कार्य समिति बैठक की अध्यक्षता कर रहे थे, लेकिन उसमें महात्मा गांधी, सरदार पटेल, सुभाष चंद बोस, मौलाना आजाद और गोविंद बल्लभ पंत सरीखे वरिष्ठ कांग्रेस नेता भी शामिल थे। जो निर्णय 88 साल पहले कांग्रेस कार्य समिति ने सर्वसम्मत प्रस्ताव पारित कर लिया था, उसके लिए अब अकेले नेहरू को जिम्मेदार ठहराना तर्कसम्मत तो नहीं, पर चुनाव केंद्रित राजनीति तर्कों के बजाय तेवरों से चलती है। इसीलिए कांग्रेस समेत विपक्ष भी स्वतंत्रता आंदोलन, राष्ट्रीय ध्वज और भारतीय संविधान के प्रति उसके पूर्वजों की भूमिका के चलते भाजपा नेताओं को कठघरे में खड़ा करने का मौका नहीं चूक रहा।

सत्ता पक्ष की ओर से आरोप लगाया गया कि नेहरू ने मोहम्मद अली जिन्ना द्वारा विरोध के ऐलान के मद्देनजर मुस्लिम लीग के दबाव में 'वंदे मातरम्' में काट-छांट स्वीकार की, जिससे देश विभाजन के बीज पड़े, तो कांग्रेस याद दिलाना नहीं भूली कि भाजपा के पूर्वज श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने तो लीग के साथ मिल कर बंगाल में सरकार बनाई थी। इतिहास निष्पक्षता और निर्ममता से घटनाओं और तथ्यों को दर्ज करता है। इसलिए उससे मुंह नहीं चुराया जा सकता। बेशक अतीत की गलतियों पर नजर डालने और उनसे सही सबक सीखने में कोई बुराई नहीं, लेकिन उनका संकीर्ण दलगत चुनावी हितों के लिए इस्तेमाल खतरनाक है।

कांग्रेस ने तमाम गलतियां की होंगी, पर उसके या किसी भी राजनीतिक दल के देश प्रेम पर सवाल उठाना तर्कसम्मत नहीं। आखिर, राष्ट्र गान 'जन-गण-मन' के रचयिता रवींद्र नाथ टैगोर ने 1896 में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में ही पहली बार 'वंदे मातरम्' गाया था। 14 अगस्त, 1947 को संविधान सभा की पहली बैठक की शुरुआत भी इसी गीत से हुई थी और कांग्रेस शासन में ही 1950 में 'वंदे मातरम्' को राष्ट्रगीत के रूप में अपनाया गया। फिर भी सत्तापक्ष और विपक्ष खुद को देशभक्त बताते हुए दूसरे को कठघरे में खड़ा करने के मौके तलाशते हैं तो उसके मूल में चुनावी दांवपेच ही हैं। बेशक 'वंदे मातरम्' के 150 साल पूरे होने पर देशभर में आयोजन और संसद में चर्चा से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा की राष्ट्रवादी छवि मजबूत होती है, पर इसके जरिये विपक्ष पर निशाना साधते हुए निगाहें पश्चिम बंगाल में चंद महीने बाद होनेवाले विधानसभा चुनावों पर भी टिकी हैं।

संसद के इस शीतकालीन सत्र में मुश्किल मुद्दों पर सरकार को घेरने की तैयारी में बैठे विपक्ष को ही कठघरे में खड़ा करने की यह सत्तापक्ष की रणनीति भी हो सकती है। एक दर्जन राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में एसआइआर के मुद्दे पर सड़क पर मोर्चा खोल चुका विपक्ष संसद में भी सरकार को घेरना चाहता है। सत्र के पहले सप्ताह में हंगामे के बाद अब सरकार चुनाव सुधार के नाम पर चर्चा पर सहमत हो गई है, पर उससे पहले विपक्ष को रक्षात्मक कर देना चाहती है। रणनीतिक दृष्टि से राजनीतिक शह-मात का खेल चलता रहता है, पर उसमें राष्ट्र-मन को आहत कर सकने वाले मुद्दों को मोहरा बनाने से बचना चाहिए। भारत एक विशाल देश है इसलिए कमोबेश कहीं-न-कहीं चुनाव चलते रहते हैं। चुनावी माहौल बनाने में बढ़त हासिल करने के दबाव में भी राजनीतिक दल अक्सर लक्ष्मण रेखा लांघ जाते हैं, जबकि राष्ट्रीय भावना से जुड़े संवेदनशील मुद्दों से बचते हुए भी यह काम बखूबी किया जा सकता है। दरअसल यह नकारात्मक राजनीति है, जिससे न तो संसद में सकारात्मक चर्चा संभव है और न ही देश में बेहतर भविष्य के लिए सौहार्दपूर्ण विमर्श। सभी दल देश-समाज के लिए ही राजनीति करने का दावा करते हैं। इसलिए राष्ट्रीय हित का तकाजा है कि चुनावी राजनीति और राष्ट्र निर्माण की रणनीति में अंतर समझ कर आगे बढ़ा जाए।