जन्म लेने के बाद बच्चे को दैनिक क्रियाओं में आत्मनिर्भर बनने में कई बरस लग जाते हैं। इस पूरे दौर में उसकी देखभाल की जिम्मेदारी किस पर होती है? ज्यादातर मांओं पर। सबको पता है कि नौ महीने के लंबे गर्भधारण और प्रजनन के बाद महिला का शरीर थका हुआ होता है। उसे भरपूर नींद और आराम की जरूरत होती है। हम इस तरफ ध्यान ही नहीं देते कि महिला ठीक तरह से सो भी नहीं पाती। स्त्रियां भी सगर्व बलिदानी भाव से बताती हैं कि कैसे बच्चे की नींद सोती-उठती हैं।
आजकल कार्यरत स्त्रियों के एक तबके में एक नई बीमारी भी देखने में आई है। उन्हें खुद को ‘सुपर वुमन’ साबित करना है कि देखो कितनी जल्दी हम काम पर लौट आए। तीन या चार महीने की अपने अधिकार वाली छुट्टी भी वे नहीं ले रहीं। फिर समाज तालियां बजाता है और छुट्टियां लेने वाली स्त्रियों को कामचोर और बहानेबाज घोषित करने लगता है। बच्चे पालने की जिम्मेदारी पुरुष को भी उठानी चाहिए, लेकिन यह समाज की मानसिकता में ही नहीं है। न पुरुष यह सोचते हैं, न ही संयुक्त परिवार जैसी मृतप्राय: संस्थाएं सोचने देती हैं। जिम्मेदारी उठाने का मतलब अक्सर आर्थिक जिम्मेदारी भर समझा जाता है। समाज मातृत्व को महान इसलिए बनाता है, क्योंकि महानता के दबाव में श्रम और शोषण की कोई बात न हो। थकी और उनींदी मांएं रात-दिन शिशु के इर्द-गिर्द घूमती महान बनी रहती हैं।
मातृत्व महान तब है, जब आप मां के नियमित श्रम को कम करने लायक समाज बनाएं। महान-महान रटते हुए उसका भावनात्मक और शारीरिक शोषण नहीं करें, लेकिन महानता के पीछे के काईयांपन के बारे में बात करते ही यह संस्कृति का संवेदनशील मुद्दा बन जाएगा। महानता की सूली पर चढ़ाने, मां की गोद, उसके आंचल, उसके हाथ के खाने के कसीदे पढऩे के अलावा समाज उनके लिए करता क्या है?
(लेखिका स्त्री विमर्श की राइटर हैं व कई कविता संग्रह प्रकाशित हुए हैं)