
Aruna Asaf Ali : आजादी की लौ जलाने वाली 'ग्रैंड ओल्ड लेडी' अरुणा आसफ अली (फोटो सोर्स: wikipedia)
Aruna Asaf Ali : क्या आप जानते हैं हमारी आजादी की लड़ाई में एक ऐसी बहादुर महिला भी थीं जिन्होंने अंग्रेजों की नाक के नीचे तिरंगा फहराया? हम बात कर रहे हैं अरुणा आसफ अली (Aruna Asaf Ali) की जिन्हें 'भारत छोड़ो आंदोलन की नायिका' और 'ग्रैंड ओल्ड लेडी' के नाम से जाना जाता है। इनकी पूरी जिंदगी देश के नाम थी।
1909 में पंजाब के कालका में जन्मी अरुणा गांगुली का बचपन भले ही आम रहा पर उनके इरादे बहुत मजबूत थे। पढ़ाई पूरी करने के बाद जब वो कलकत्ता में पढ़ा रही थीं तब उनकी मुलाकात आसफ अली से हुई। घरवालों की मर्जी के खिलाफ जाकर उन्होंने आसफ अली से शादी की जो उस समय के लिए एक क्रांतिकारी कदम था। आसफ अली के जरिए ही अरुणा जी कांग्रेस पार्टी और आजादी की लड़ाई से जुड़ीं।
भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान जब अरुणा आसफ अली भूमिगत होकर अंग्रेजों के खिलाफ लड़ रही थीं तब उनकी सेहत बहुत खराब हो गई थी। 9 जून, 1944 को खुद महात्मा गांधी ने उन्हें एक मार्मिक चिट्ठी लिखी। उन्होंने अरुणा के साहस की तारीफ की लेकिन उन्हें सलाह दी कि वो समर्पण कर दें और जो इनाम उनके लिए घोषित हुआ है उसे हरिजन कार्य में लगा दें। गांधीजी का स्नेह अरुणा के लिए गहरा था पर अरुणा का आत्म-सम्मान उससे भी गहरा।
अरुणा ने ताउम्र उस चिट्ठी को संभाल कर रखा पर गांधीजी की बात नहीं मानी। उन्होंने पलटकर जवाब दिया आपके पत्र में 'समर्पण' शब्द ने मुझे हैरान कर दिया है। मुझे ये सोचकर ठेस पहुंची कि मुझसे ऐसे दुश्मन के सामने झुकने की उम्मीद की जा रही है जिसे अपने जुल्मों पर कोई पछतावा नहीं। ये अरुणा का वो दृढ़ निश्चय था जिसने उन्हें 'भारत छोड़ो आंदोलन' की नायिका बनाया।
अरुणा आसफ अली और आसफ अली का विवाह भी अपने आप में एक कहानी है। दोनों के बीच 20 साल से ज्यादा का अंतर था और आसफ अली मुस्लिम थे। परिवार के विरोध के बावजूद उन्होंने 1928 में शादी की। शादी के बाद जब अरुणा गांधीजी से मिलीं तो गांधीजी ने उनके विवाह को हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रतीक बताया। अरुणा मानती थीं कि उन्होंने आसफ अली से इसलिए शादी नहीं की क्योंकि वो मुस्लिम थे बल्कि दोनों के बीच इंग्लिश साहित्य, इतिहास और दर्शन में गहरी रुचि और आपसी समझ थी। लेकिन गांधीजी का मानना था कि उनके विवाह का एक प्रतीकात्मक महत्व है।
1930 के नमक सत्याग्रह में अरुणा जी ने हजारों लोगों के साथ हिस्सा लिया और गिरफ्तार भी हुई। गांधी-इरविन समझौते के तहत बाकी सब छूट गए पर उन्हें रिहा नहीं किया गया। तब महिला कैदियों ने आवाज उठाई जिसके बाद गांधीजी के कहने पर उन्हें आजादी मिली। लेकिन उनकी क्रांतिकारी भावना उन्हें ज्यादा देर शांत नहीं रहने देती थी। 1932 में उन्हें फिर जेल जाना पड़ा। दिल्ली की जेल में उन्होंने कैदियों की बदहाली के खिलाफ भूख हड़ताल की जिसके बाद उन्हें अंबाला की एक कोठरी में अकेले रखा गया।
8 अगस्त, 1942 को एक बड़ा पल आया। जब अंग्रेजों ने भारत को बिना पूछे दूसरे विश्व युद्ध में धकेला तो कांग्रेस ने 'भारत छोड़ो' का नारा दिया। अगले ही दिन गांधीजी समेत सभी बड़े नेता गिरफ्तार हो गए। लोगों को लगा आंदोलन खत्म हो जाएगा लेकिन तभी मुंबई के ग्वालिया टैंक मैदान (जो अब अगस्त क्रांति मैदान कहलाता है) में अरुणा आसफ अली (Aruna Asaf Ali) हजारों की भीड़ के सामने डट गई और उन्होंने निडर होकर तिरंगा फहरा दिया। ये अंग्रेजों के लिए किसी बड़े झटके से कम नहीं था और पूरे देश में क्रांति की आग तेज हो गई।
पुलिस ने इन्हें पकड़ने के लिए ₹5,000 का इनाम रखा और इनकी संपत्ति जब्त कर ली पर अरुणा जी छिपकर अपना काम करती रहीं। गांधीजी ने भी उन्हें सरेंडर करने को कहा पर वो नहीं मानीं। जयप्रकाश नारायण और राम मनोहर लोहिया जैसे नेताओं के साथ मिलकर उन्होंने समाजवादी विचारों को फैलाया। अकाल से जूझ रहे गांवों में जाकर उन्होंने जरूरतमंदों की मदद भी की।
1946 में जब उनका गिरफ्तारी वारंट रद्द हुआ तो वो फिर से खुलेआम आजादी की लड़ाई में शामिल हो गईं। उन्होंने मजदूरों के हकों के लिए आवाज उठाई और 1946 में हुए रॉयल इंडियन नेवी विद्रोह का समर्थन भी किया जबकि गांधीजी और नेहरू इसके खिलाफ थे।
आजादी के बाद भी अरुणा जी (Aruna Asaf Ali) ने लोगों की सेवा करना नहीं छोड़ा। वो कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी और फिर कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया में शामिल हुई। 1954 में, उन्होंने नेशनल फेडरेशन ऑफ़ इंडियन वूमन बनाने में मदद की। 1958 में, वो दिल्ली की पहली मेयर चुनी गईं और शहर के विकास में अहम योगदान दिया। उन्होंने 'पैट्रियट' और 'लिंक' जैसे दो बड़े अखबारों का संपादन भी किया जो उस समय काफी मशहूर हुए।
अरुणा आसफ अली को 1965 में लेनिन शांति पुरस्कार, 1991 में जवाहरलाल नेहरू अंतर्राष्ट्रीय सद्भावना पुरस्कार, 1992 में पद्म विभूषण और 1997 में मरणोपरांत भारत रत्न से सम्मानित किया गया। 1998 में तो उनके सम्मान में डाक टिकट भी जारी हुआ और दिल्ली में एक बड़ी सड़क का नाम अरुणा आसफ अली मार्ग रखा गया है।
अरुणा आसफ अली सिर्फ एक नाम नहीं बल्कि साहस, निस्वार्थता और देशप्रेम की एक जीती-जागती मिसाल हैं। उन्होंने न केवल अंग्रेजों से लड़ाई लड़ी बल्कि आजाद भारत में भी बराबरी और न्याय के लिए आवाज उठाई। उनकी कहानी हमें सिखाती है कि अगर हौसले बुलंद हों तो कोई भी मुश्किल बड़ी नहीं होती। वाकई ऐसी महान शख्सियतें ही हमारे देश की असली पहचान हैं।
Source: britannica
Published on:
04 Aug 2025 04:03 pm
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