
अब बस यादों में बचे हैं मैदान (फोटो सोर्स- पत्रिका)
National Sports Day 2025: नेशनल स्पोर्ट्स डे पर जब पूरा देश खिलाड़ियों और खेल की उपलब्धियों को याद कर रहा है, राजधानी रायपुर की यादों में वे पुराने मैदान भी ताजा हो उठे हैं जो अब गुमनाम हो चुके हैं। इतिहासकार रामेंद्र नाथ मिश्र बताते हैं कि पुरानी बस्ती से लेकर शंकर नगर तक ऐसे कई बड़े मैदान हुआ करते थे, जहां कभी फुटबॉल, एथलेटिक्स और दंगल की गूंज सुनाई देती थी। लेकिन आज इनमें से ज्यादातर मैदान पक्की इमारतों में तब्दील हो गए हैं या ऊंची बाउंड्रीवाल में कैद होकर रह गए हैं।
सवाल यही है कि जब बच्चों को खेलने के लिए सुरक्षित और बड़े मैदान नहीं मिलेंगे, तो कल के ओलंपियन कहां से निकलेंगे? राजधानी के पुराने हिस्सों में ऐसे कई बड़े मैदान थे जो पीढ़ियों की यादों का हिस्सा हैं। ईदगाह भाठा का मैदान फुटबॉल मुकाबलों के लिए मशहूर रहा। य३हां फुटबॉल के मैच होते थे, जिन्हें देखने के लिए आसपास की बस्तियों से भीड़ उमड़ पड़ती थी।
इसी तरह रावण भाठा का मैदान दशहरे के दहन के लिए तो जाना ही जाता था, जो कभी सालभर बच्चों और युवाओं का खेल का केंद्र भी रहा। विज्ञान महाविद्यालय का मैदान स्कूली प्रतियोगिताओं के लिए प्रमुख जगह थी, लेकिन अब यहां इमारतें खड़ी हो चुकी हैं। सुभाष स्टेडियम, और जयस्तंभ चौक का मैदान सभी कभी शहर की खेल गतिविधियों के धडक़ते हुए केंद्र थे। 1955 में कटोरा तालाब मैदान इतना विशाल था कि यहां पंडाल लगाकर नेहरूजी का भाषण हुआ था।
शंकर नगर का मैदान भी रायपुर का गौरव था। एनसीसी ट्रेनिंग से लेकर एथलेटिक मीट तक यहां आयोजित होते थे। आज का एनआईटी जो कभी इंजीनियरिंग कॉलेज था, वह संस्कृत महाविद्यालय से सटा हुआ था। आज यह मैदान छोटे हिस्सों में सिमट चुका है।
बीटीआइर् ग्राउंड युवाओं का सबसे बड़ा आकर्षण था। 60 और 70 के दशक में यहां फुटबॉल टूर्नामेंट और एनसीसी कैंप आयोजित होते थे। ये मैदान न केवल खेल का केंद्र रहे, बल्कि शहर की सामाजिक और सांस्कृतिक गतिविधियों का भी हिस्सा बने, लेकिन शहरीकरण और बढ़ते निर्माण ने इन्हें धीरे-धीरे निगल लिया। आज स्थिति यह है कि नए मोहल्लों और कॉलोनियों में बच्चों के लिए खेल के मैदान मुश्किल से मिलते हैं।
इसी बीच, नवा रायपुर (अटल नगर) में खेल ढांचे को नया आयाम देने की दिशा में काम हो रहा है। यहां राष्ट्रीय तीरंदाजी अकादमी स्थापित की जा रही है, जो लगभग 13.47 एकड़ में फैलेगी। करीब 39.22 करोड़ की लागत से बनने वाली इस अकादमी में इनडोर-आउटडोर रेंज, हाई-परफॉर्मेंस सेंटर, हॉस्टल और स्टाफ आवास जैसी आधुनिक सुविधाएं होंगी। इसे अगले तीन वर्षों में पूरा करने का लक्ष्य है।
विडंबना यह है कि राजधानी में जो गिने-चुने मैदान बचे हैं, वे भी सालभर अलग-अलग गतिविधियों से घिरे रहते हैं। कभी एग्जीबिशन, तो कभी मेले का आयोजन। खेलकूद के लिए जगह ढूंढना मुश्किल होता जा रहा है। हालत यह है कि इन मैदानों की नियमित सफाई तक नहीं हो पाती। हिंद स्पोर्ट्स मैदान में रेत बिखरी रहती है और मवेशी आराम फरमाते मिल जाते हैं। वहीं, बीटीआई मैदान इस समय ग्रामोद्योग प्रदर्शनी से घिरा हुआ है। यानी खेल के नाम पर जो जमीन बची है, वह भी लगातार दूसरे इस्तेमाल में व्यस्त रहती है।
रायपुर के इन मैदानों ने शहर की कई पीढिय़ों को संस्कार और बेहतर सेहत दी, लेकिन अब मैदान सिकुड़ रहे हैं। बच्चे मोबाइल और स्क्रीन में कैद हो रहे हैं। अगर यही हाल रहा तो खेल दिवस सिर्फ कैलेंडर तक सिमट जाएगा। - रामेंद्र नाथ मिश्र, इतिहासकार
Published on:
29 Aug 2025 02:52 pm
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