
MP News: भोपला पत्रिका. 5 साल में बदलेगी एमपी की तस्वीर, तेजी से बढ़ा मक्का का उत्पादन। (फोटो: सोशल मीडिया- modify by patrika.com)
MP News: लंबे समय से मध्य प्रदेश को 'सोयाबीन का कटोरा' कहा जाता रहा है। कभी गेहूं और सोयाबीन यहां की पहचान मानी जाती थी। लेकिन अब तस्वीर बदल रही है। मौसम की अनिश्चितता, मंडी में मिल रही कीमतों में उतार-चढ़ाव और सरकारी नीतियों ने किसानों का सोयाबीन से मोह भंग कर दिया है। स्थिति ये है कि एमपी के किसान अब पारंपरिक खेती को छोड़ नए विकल्पों की ओर जा रहे हैं। उनका रुझान उड़द, मक्का, तिल, जैविक खेती के साथ ही अन्य कम जोखिम वाली फसलों की ओर बढ़ा है।
1- मौसम की अनिश्चितता: बीते पांच साल में मानसून के पैटर्न में लगातार बदलाव हुआ है। सोयाबीन को समय पर बारिश चाहिए, लेकिन अनियमित बारिश और लंबे सूखे ने किसानों की उम्मीदें तोड़ दी हैं। वहीं गेहूं की बुआई के समय कभी पाला पड़ जाता है, कभी ओलावृष्टि। बड़ा कारण है कि प्रदेश में पारंपरिक खेती को छोड़ किसान अब नया और कम जोखिम भरा बदलाव चाहते हैं।
2 - आर्थिक गणित : सोयाबीन और गेहूं जैसी फसलों में लागत ज्यादा और मुनाफा कम हो रहा है। मंडियों में भाव समर्थन मूल्य तक नहीं पहुंचते। मक्का जैसी फसलें कम लागत में भी अच्छी पैदावार दे रही हैं।
3- बाजार और निर्यात का असर: मक्का की अंतरराष्ट्रीय मांग बढ़ी है, खासकर चारा और प्रोसेस्ड फूड उद्योगों में। लेकिन उड़द और तिल, मक्का की खपत घरेलू स्तर पर भी ज्यादा है। किसानों को इन फसलों में कभी-कभी सीधे खरीदार भी मिल जाते हैं।
4- सरकारी नीतियां: राज्य सरकार ने दलहन और तिलहन के लिए MSP बढ़ाई है। केंद्र की योजनाओं में दाल उत्पादन बढ़ाने का लक्ष्य रखा गया है। किसान क्रेडिट कार्ड और फसल बीमा योजना का ज्यादा लाभ इन फसलों पर मिल रहा है।
किसानों (MP Farmers)का कहना है कि सोयाबीन (Soybean in MP) की फसल अब धोखे की फसल साबित हो रही है। मौसम की मार के साथ ही, इसमें अब इल्ली, यलो मॉजेक के कारण फसल खराब हो रही है। कभी-कभी तो पूरी की पूरी फसल खराब हो रही है। तो कीटनाशकों के ज्यादा उपयोग करने से उसकी लागत बहुत ज्यादा हो जाती है। लागत के हिसाब से समर्थन मूल्य नहीं मिल पाता। ऐसे में मक्का की फसल से किसानों की उम्मीद जागी ही नहीं बल्कि दोगुनी हो गई है।
एमपी में खेती में बदलाव से ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर सीधा-सीधा असर पड़ा है। मक्का (Corn Farming)और उड़द की फसलें जल्दी कट जाती हैं। इससे मजदूरों को काम जल्दी मिलता है। फसल बदलने से पशुओं के लिए चारा भी आसानी से उपलब्ध हो रहा है। कुछ किसानों का कहना है कि उड़द की फसल भी थोड़ी ज्यादा लागत मांग रही है। इसमें यलो मॉजेक जल्दी लग रहा है। उसका कोई समाधान भी नहीं निकल पा रहा। ऐसे में उड़द से ज्यादा मक्का का उत्पादन किसानों के लिए लाभ का सौदा साबित हो सकता है। मक्का की फसल से एमपी के किसानों की उम्मीद दोगुनी हो गई है।
मक्का की फसल ने जिस तरह किसानों के चेहरे नई उम्मीद की रोशनी से चमका दिए हैं, अगर यही रुझान जारी रहा, तो आने वाले 5 साल में मध्य प्रदेश में कृषि का नक्शा बदल सकता है। सोयाबीन का क्षेत्रफल घटेगा। दलहन और मक्का की हिस्सेदारी दोगुनी हो जाएगी। कम समय में ज्यादा मुनाफा किसानों की किस्मत चमकाने वाला साबित हो सकता है। प्रदेश के किसानों को नए बाजार और एक्सपोर्ट के अवसर मिल सकते हैं।
मध्य प्रदेश ग्राम पटेल संघ के प्रदेश अध्यक्ष राम किशोर दांगी कहते हैं कि सोयाबीन का उत्पादन कम हो रहा है लागत बढ़ रही है। ऐसे में उन्होंने ही नहीं बल्कि, उनके गांव के ज्यादार किसानों ने सोयाबीन का रकबा अब कम किया है। इसके साथ ही छोटे स्तर पर तुअर, मक्का, गेहूं का थोड़ा उत्पादन शुरू किया गया है। लेकिन इनका उत्पादन केवल घर खर्च के लिए ही कर पाते हैं।
हमारे गांव में अब मक्का का उत्पादन बढ़ा है। उसका रेट भले ही कम है केवल 1500-2000 रुपए है। लेकिन आजकल हार्वेस्टर कटिंग शुरू हो गई है। हार्रवेस्टर को डायरेक्ट खड़ी फसल पर चलाया जाता है। इस तकनीक ने मक्का की लागत कम कर दी है। वहीं मक्का एक एकड़ में 25-30 क्विंटल तक पहुंच जाती है। इसमें बार-बार दवा भी नहीं डालनी पड़ती। वो ऐसी फसल है जो एक बार बस लग जाए तो, अच्छा खासा उत्पादन देती है। पिछले आठ साल में मक्का का उत्पादन बंपर तरीके से बढ़ा है।
कहना होगा किएमपी में पारंपरिक खेती छोड़ना किसानों की मजबूरी भी है और अवसर भी। जलवायु परिवर्तन और आर्थिक दबाव ने नये विकल्प सोचने को मजबूर कर दिया है। लेकिन अगर सरकार और वैज्ञानिक संस्थान साथ दें तो, यह बदलाव किसानों को आत्मनिर्भर बना सकता है और प्रदेश की खाद्य सुरक्षा को और मजबूत कर सकता है।
Published on:
13 Sept 2025 07:32 pm
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