
Tansen Samaroh 2025: (photo:Freepik modify by patrika.com)
Tansen Samaroh 2025: अंतरराष्ट्रीय तानसेन संगीत समारोह महज एक संगीत कार्यक्रम नहीं, बल्कि सुरों की साधना का मंच है। ग्वालियर की सर्द रातों में जब तानसेन की समाधि के पास राग छेड़े जाते हैं, तो आज भी सुनने वाले इन रागों के असर में खो जाते हैं, सुरों का जादू आग नहीं लगाता, बारिश नहीं गिराता और न ही पत्थर पिघलाता नजर आता है, लेकिन श्रोताओं की बंद आंखें, पैर पर ताल के साथ ताल देते हाथ और चेहरे पर नजर आने वाला सुकून बता देता है, रागों की सुरमयी शाम ने उन्हें अपने रंग में डूबो दिया है। यहां शास्त्रीय संगीत केवल मंच की प्रस्तुति नहीं बल्कि, मेडिटेशन बन जाती है। हर आलाप में परम्परा की गहराई, हर बंदिश में गुरु-शिष्य परम्परा की खुशबू...। तानसेन संगीत समारोह दर्शकों और श्रोताओं के लिए किसी त्योहार के उत्साह का नहीं बल्कि, आस्था का केंद्र है। जहां सुरों की जादूगरी के आगे ऑडियन्स नत मस्तक हो जाती है। पढ़ें संजना कुमार की खास रिपोर्ट...
माना जाता है कि एक दौर ऐसा भी गुजरा है, जब एक राग छेड़ते ही दीपक जल उठते थे, तो दूसरा गाते ही मेघ उमड़-उमड़कर बरसने लगते थे। पत्थर तक पिघल जाते थे। हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के महान संगीतकार और कवि तानसेन अकबर के दरबार के नवरत्नों में से एक थे। जिनकी एक उम्र ग्वालियर में जहां उनकी समाधि है, वहां रियाज करते बीती है।
कहा जाता है कि उनका रियाज ऐसा था कि उनके शुद्ध और सच्चे सुरों से गाया गया दीपक राग आग जला देता था, मेघ राग से बारिश हो जाती थी और मालकौस में उनकी गायकी सुनकर पत्थर भी पिघल जाते थे। तानसेन की तान को लोग सिर्फ संगीत नहीं, एक साधना, एक ईश्वरीय शक्ति की तरह महसूस किया करते थे।
सदियों से वही राग, वही सुर और वही धरती है, बस हमारे सुनने-गाने का अंदाज बदल गया है। अब संगीत से ज्यादा बाजार और टीआरपी की आवाज ऊंची हो गई है। लेकिन जहां साधना है तपस्या है, मन की निर्मलता और सच्चे सुर हैं वहां आज भी उनका असर कायम है।
तानसेन के जमाने में शास्त्रीय संगीत की ध्रुपद जैसी परंपरा में बैठे दीपक, मेघ और मालकौस जैसे ये गंभीर राग सिर्फ गाने के लिए नहीं बल्कि, तपस्या के रूप में साधे जाते थे। महीनों, बरसों का रियाज करने के बाद ही कोई गायक दरबार में एक ठहराव भरा आलाप लेने की हिम्मत कर पाता था। इसीलिए शायद उस दौर में संगीत को मनोरंजन नहीं बल्कि 'साधना' 'ईश्वरीय शक्ति' कहा जाता था। जहां गला अच्छा होना काफी नहीं था, मन का निर्मल होना भी उतना ही अहम माना जाता था।
सूरदास, तुलसीदास, मीरा की भक्ति हो या तानसेन की तान, सबमें एक बात कॉमन थी- आवाज के पीछे एक ऐसा विश्वास, जो गायक और श्रोता दोनों को भीतर तक हिलाने और ईश्वर के करीब ले जाने का रास्ता था।
भोपाल की शास्त्रीय गायिका काकोली सरकार कहती हैं कि अब दरबार बदल चुका है। जहां कभी बादशाह और उस्ताद बैठकर राग सुनते थे, आज उनकी जगह टीवी के स्टूडियो, रियलिटी शो के स्टेज और मोबाइल की स्क्रीन ने ले ली है। गायक भीड़ में से चुनकर मंच पर आते हैं, कुछ मिनट का हाई-पिच गाना गाते हैं, बैकग्राउंड में भावनात्मक म्यूजिक या कहानी चल रही होती है। घर बैठे दर्शक एसएमएस या ऐप से वोट कर देते हैं। किसी के सुर जरा डगमगा जाएं तो टेक्नोलॉजी, ऑटोट्यून और स्टूडियो सेटअप उन्हें सीधा कर देता है, गलती कानों से पहले मशीन पकड़ लेती है।
काकोली सरकार बताती हैं कि इस शोर के बीच सच ये भी है कि शास्त्रीय संगीत की धीमी, धीरज वाली दुनिया स्क्रीन की तेज रफ्तार से कदम मिलाने की कोशिश में कभी-कभी हांफती हुई सी नजर आती है। आधे घंटे का आलाप सुनने से पहले ही उंगली स्क्रॉल पर फिसल जाती है, क्योंकि अब गाने नहीं, 'क्लिप' चलते हैं, राग नहीं, 'ट्रेंडिंग सॉन्ग' वायरल होता है। लेकिन वह ये भी कहती हैं इस रफ्तार के बीच एक दूसरी दुनिया भी है, जहां छोटे-छोटे गुरुकुलों, संगीत संस्थानों और ऑनलाइन क्लासेस में बच्चे अब भी नोटबुक लेकर बैठते हैं और गुरु के सामने सिर्फ एक 'सा' ठीक से लगाने का घंटों रियाज करते हैं।
शास्त्रीय गायिका वीणा मंडाखलिकर मूल रूप से मराठी हैं, लेकिन भोपाल में कहती हैं कि शास्त्रीय संगीत की असली ताकत, बाहर के मौसम से ज्यादा मन के भीतर का मौसम बदलने की है। तानसेन के दौर में कहा जाता था कि राग से बारिश हो सकती है, आज के दौर में शायद कोई यह दावा न करे, लेकिन शास्त्रीय संगीत की असली ताकत आज भी नजर आती है, बस उसका रूप बदल गया है। वह किसी और रूप में नजर आती है।
जैसे तनाव, अवसाद, चिंता और अकेलेपन से जूझती आज की पीढ़ी के लिए राग यमन, भैरव या मेघ की एक शांत प्रस्तुति, मोबाइल के स्क्रीन पर ही सही, भीतर के अकेलेपन को दूर करने बारिश की बूंद का काम कर रही है। बाहर बादल न भी बरसें, लेकिन कानों के रास्ते जो ध्वनि अंदर जाती है, वह दिमाग की भागदौड़ को थोड़ी देर के लिए थाम लेती है। शास्त्रीय संगीत की सबसे बड़ी शक्ति यही है कि... वह इंसान के मन के पल-पल बदलते मौसम को सुकून और ठहराव में बदलने की हिम्मत रखता है।
वीणा मंडाखलिकर कहती हैं कि दीपक राग से दीये जलने की कहानियां आज के युवाओं को भले ही दंतकथा लगें, लेकिन वही राग किसी अस्पताल के कमरे में, किसी स्ट्रेस से जूझते स्टूडेंट के कमरे में, किसी बुजुर्ग के अकेलेपन में हल्की सी रोशनी जरूर जला रहे हैं। सुर अब आग और बारिश नहीं, आंसू और मुस्कान का रूप लेते हैं। कभी गर्दन की नसों में आए तनाव को ढीला करते हैं, कभी आंखों तक अटके दुख को बाहर आने में मदद कर देते हैं।
म्युजिकल थैरेपी से गंभीर बीमारियां दूर हो रही हैं। भाग-दौड़ की लाइफ में तनाव, डिप्रेशन का इलाज हो रहा है। मेडिटेशन का सबसे खूबसूरत अहसास बन रहा है संगीत, इससे ज्यादा असर और कैसे देख सकते हैं आज। ये बड़ा उदाहरण हैं संगीत, सुर और साधना के प्रभाव का।
शहर के गजल गायक और शास्त्रीय संगीत पर गहरी पकड़ रखने वाले जेपी मरावी कहते हैं कि भले ही राग से बारिश नहीं होती, लेकिन जब कोई गायक पूरे मन से मेघ या मल्हार राग गाता है तो श्रोता के मन के भीतर बार-बार उमड़ती निराशा की लपटें धीमी जरूर पड़ जाती हैं। तानसेन की तान और आज की गायकी के बीच यह फर्क साफ दिखता है कि पहले संगीत को ईश्वरीय शक्ति माना जाता था लेकिन, अब उसे प्रोडक्ट की तरह बेचा जाता है। लेकिन हर सुर के भीतर वही पुराना जादू आज भी छुपा है, बस उसे सुनने और महसूस करने के लिए कुछ खामोशी और थोड़ा धैर्य चाहिए।
जेपी मरावी बताते हैं कि सवाल ये नहीं है कि तानसेन सचमुच बारिश लाते थे या नहीं, सवाल ये है कि क्या आज की गायकी हमारे मन पर वैसा असर छोड़ पा रही है जैसा कभी एक ध्रुपद, एक बड़ा खयाल छोड़ा करता था। आज आवाज, चेहरा, स्टाइल, रील-सब कुछ बिकाऊ बन चुका है। गायक को भी पता है कि एक गलत सुर से ज्यादा एक मिस्ड ट्रेंड उसकी मार्केट वेल्यू को नुकसान पहुंचा सकता है।
जेपी मरावी का कहना है कि आज समय यह भी दिखा रहा है कि जो युवा शास्त्रीय संगीत को पकड़ लेते हैं, उनके लिए यह सिर्फ करियर नहीं, खुद को संभालने का साज और सही निर्णय लेने की कला सीख जाता है।
हो सकता है कि अब कोई भी व्यक्ति किसी कार्यक्रम में बैठकर मेघ मल्हार सुनते हुए बादलों को न निहारता हो, लेकिन हर शहर में, हर कस्बे में ऐसे घर जरूर हैं, जहां शाम को कोई बच्चा हारमोनियम या तानपुरा लेकर रियाज शुरू करता नजर आ जाएगा। यह छोटे-छोटे घर ही आज के असली 'दरबार' हैं। क्योंकि यहीं से ऐसे गायक फिर निकलेंगे जो शोर के बीच भी सुर-साधना की तपस्या में लीन होंगे और जिनकी तान से भले ही दीये न जलें, लेकिन सुनने वालों की आंखों में एक भरोसे की लौ जरूर जल उठेगी।
जेपी मरावी कहते हैं कि आज संगीत साधना नहीं हॉबी का रूप ले चुका है। बच्चों पर पढ़ाई का इतना बोझ है, ऊपर से पेरेंट्स यही सोचकर बच्चों को संगीत सिखाने लाते हैं कि उनका नाम हो, लेकिन जब वो बच्चों के बिहेवियर में आने वाले व्यावहारिक बदलाव को देखते हैं, उनका स्कूली रिजल्ट बेहतर होते देखते हैं तब वे संगीत का असर जान पाते हैं। उन्हें लगता है हमने अच्छा किया। लेकिन वे नहीं चाहते कि उनके बच्चे इस फील्ड में करियर बनाए, उनकी प्रोयोरिटी में संगीत नहीं होता। नौकरी और करियर की अनिश्चितता ने भी संगीत साधना को सीमित कर दिया है। हो सकता है कि कल कोई नई पीढ़ी फिर से इन रागों को सिर्फ स्टेज नहीं, साधना समझकर सीखे और तब शास्त्रीय संगीत एक बार फिर हमारे समय की सबसे बड़ी संवेदनशील ताकत बनकर सामने आए।
बता दें कि तानसेन संगीत समारोह संगीत नगरी ग्वालियर की शान है, देश-दुनिया के कलाकार इस मंच पर प्रस्तुति देकर खुद को धन्य महसूस करते हैं। इस बार भी 15 दिसंबर 2025 से शुरू हुआ तानसेन समारोह, 19 दिसंबर शुक्रवार को संपन्न हो जाएगा।
Published on:
18 Dec 2025 03:11 pm
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