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वही उम्र, वही हालात और वही कहानीः …ऐसे तो आडवाणी भी बन सकते हैं प्रधानमंत्री

locationनई दिल्लीPublished: May 11, 2018 07:37:14 am

आडवाणी के अब प्रधानमंत्री न बन पाने के पीछे उनकी उम्र का तर्क देने वालों को महातिर की कहानी जरूर पढ़नी चाहिए। दोनों में बेहद दिलचस्प समानताएं हैं।

LK Advani

लालकृष्ण आडवाणी और महातिर मोहम्मद

प्रीतेश गुप्ता
मलेशियाई और भारतीय सियासत की दो दिग्गज हस्तियों की कहानी में काफी दिलचस्प समानताएं हैं। एक भारतीय जनता पार्टी के लौहपुरुष कहे जाने वाले भारत के पूर्व उप-प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी हैं, तो दूसरे मलेशिया के नवनिर्वाचित प्रधानमंत्री महातिर बिन मोहम्मद हैं। दोनों नेताओं के इर्द-गिर्द सियासी हालात, उम्र, अतीत और वर्तमान काफी हद तक एक जैसे हैं। आडवाणी को जिंदगी के नौवें दशक में प्रधानमंत्री बनने का इंतजार है तो महातिर ने लगभग उसी उम्र में यह जंग जीत ली है और दोनों अपने ही राजनीतिक शिष्यों से रूठे हैं।
आडवाणी की उम्र पर सवाल उठाने वाले यह पढ़ लें

जो लोग आडवाणी के अब प्रधानमंत्री न बन पाने के पीछे उनकी उम्र का तर्क देते हैं, ऐसे लोगों को महातिर की कहानी जरूर पढ़नी चाहिए। आडवाणी की उम्र अभी 90 साल ही है, जबकि महातिर 92 साल के हो चुके हैं। महातिर दुनिया के सबसे बुजुर्ग प्रधानमंत्री होने का रिकॉर्ड अपने नाम कर चुके हैं। खास बात यह है कि दोनों ही नेताओं में उम्र के इस पड़ाव पर भी गजब की क्षमताएं हैं। दोनों सार्वजनिक जीवन में सक्रियता के मामले में आज भी युवा नेताओं से काफी आगे नजर आते हैं।
दोनों गुरुओं की शिष्यों से है जंग

आडवाणी 2005 से ही मोदी से नाराज हैं। समय के साथ घटनाक्रम बदले और यह नाराजगी बढ़ती गई। गोवा में हुई भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के बाद यह द्वंद्व खुलकर सबके सामने आ गया। इस महामंथन में ही मोदी को 2014 के आम चुनावों के लिए प्रचार की कमान सौंपी गई थी। यह फैसला आडवाणी की मर्जी के खिलाफ था। दूसरी तरफ मलेशिया में भी बारिसन नेशनल के नेता रहे महातिर कभी अपने राजनीतिक शिष्य नजीब रजाक से नाराज थे और उन्हीं के खिलाफ चुनाव जीतकर प्रधानमंत्री भी बने। हालांकि वे पहले भी 22 साल तक प्रधानमंत्री रह चुके हैं।
दोनों की पार्टियों के सियासी हालात

भारत में प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ उनकी ही पार्टी के कई दिग्गज राजनीतिक मोर्चा खोल चुके हैं। इनमें यशवंत सिन्हा समेत कई प्रमुख नाम शामिल हैं। वहीं मलेशिया में भी बारिसन नेशनल के नेता नजीब रजाक का भी उनकी ही पार्टी के दिग्गजों ने विरोध किया था। इनमें महातिर का नाम सबसे ऊपर है। हाल ही में उन्होंने नजीब के प्रधानमंत्री बनने को भी अपनी ही गलती का नतीजा करार दिया था। इधर आडवाणी खुद तो नहीं कहते लेकिन सब जानते हैं कि मोदी के इस सियासी कद के पीछे आडवाणी की क्या भूमिका है।
मोदी की सियासी जिंदगी आडवाणी इसलिए खास

मोदी के राजनीतिक उभार में आडवाणी एक पिता की तरह उनके साथ रहे हैं। जानकारों के मुताबिक 1975 में पहली बार मोदी आडवाणी की नजर में आए थे। उस वक्त आडवाणी जनसंघ के शिखर नेता थे। आडवाणी को मोदी की प्रबंधन और संगठन क्षमता पसंद आई। इसके बाद आडवाणी ने मोदी को कई मौके भी दिलाए और संकट की हर घड़ी में एक पिता की तरह साथ खड़े रहे। 1987 में मोदी निकाय चुनाव से लेकर 1995 में राष्ट्रीय सचिव, 1998 में राष्ट्रीय महासचिव और 2001 में गुजरात के मुख्यमंत्री बनने तक हर कदम पर आडवाणी उनके लिए वरदान की तरह साबित हुए। आडवाणी का योगदान सिर्फ मोदी को बनाने तक नहीं बल्कि बचाने में भी अहम माना जाता है। गुजरात दंगों के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी मोदी को मुख्यमंत्री पद से हटाना चाहते थे, लेकिन आडवाणी ने ऐसा होने नहीं दिया।
Modi Advani
…और आडवाणी को क्या मिला?

सियासी पंडित कहते हैं कि आडवाणी को गुरुदक्षिणा नहीं मिल पाई। 2005 में आडवाणी जिन्ना की मजार पर गए तो नाराज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने आडवाणी पर पार्टी अध्यक्ष पद छोड़ने का दबाव बनाया। इस संकट की घड़ी में भी मोदी ने साथ नहीं दिया। 2009 में आडवाणी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार थे, लेकिन गुजरात की सभाओं में अक्सर पहले मोदी का भाषण होता था। इन सब घटनाओं ने रिश्तों की तल्खी बढ़ाने का ही काम किया। 2014 में मोदी प्रधानमंत्री बने और उसके बाद भी कई अवसरों पर आडवाणी ने खुद को उपेक्षित महसूस किया। इन घटनाक्रमों को देखते हुए इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि आडवाणी फिर कोई सियासी क्रांति को अंजाम तक पहुंचा दे। उनकी सियासी और सांगठनिक क्षमताएं अब भी महातिर की तरह ही उनकी ताकत बन सकती है।
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