
नई दिल्ली। आजादी के बाद विपक्षी पार्टियों के सामने जो चुनैतियां कांग्रेस को हराने को लेकर 1977 ( 26 साल) तक बनी रही वही स्थितियां आज भाजपा को सत्ता से बेदखल करने को लेकर भी है। अंतर सिर्फ इतना है कि कांग्रेस आजादी की लड़ाई की देन थी और भाजपा गैर कांग्रेसवाद की उपज है। कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करने में 26 साल लगे उसी काम को गैर भाजपावाद के बैनर तले कांग्रेस सहित अन्य पार्टियां 5 साल में कर दिखाना चाहती हैं। तो क्या मोदी विरोधी मोर्चे (महागठबंधन ) इस बार ऐसा कर पाने में सक्षम है या फिर सभी तरह की सियासी जद्दोजहद के बाद भी महगठबंधन को अभी और इंतजार करना होगा।
2 साल बाद भी नहीं ली सीख
दरअसल, कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करने में 26 साल इसलिए लगा की विपक्षी पार्टियों को एक मंच पर आने में ढाई दशक से ज्यादा समय लग गया। इस बार मोदी लहर को झटका देने का काम नीतीश कुमार ने एक साल बाद यानी 2015 में बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी ) कांग्रेस, और अन्य दलों के साथ महागठबंधन बनाकर शुरू कर दिया था लेकिन दो साल पहले तक इस बात को लेकर कांग्रेस की निष्क्रियता के कारण 2017 में उन्होंने ही महागठबंधन को पहला झटका देने का काम भी किया। न चाहते हुए भी नीतीश कुमार ने घर वापसी की और करीब चार साल बाद फिर से NDA का हिस्सा बन गए।
एक-दूसरे को छोटा दिखाने की होड़
इसके बाद भी महागठबंधन को लेकर प्रयास जारी रहा लेकिन लोकसभा चुनाव के पांचवे चरण तक आते-आते मोदी विरोधी मोर्चा आपसी अहम की लड़ाई में उलझ गया है। यही वजह है कि कर्नाटक में कांग्रेस-जेडीएस गठबंधन सरकार बनने और बेंगलूरु में विपक्षी पार्टियों के जमावड़े से जो मोदी-शाह को सियासी झटका लगा था वो तेवर अब न तो कांग्रेस के दिखाई देते हैं न ही उनके सहयोगी पार्टियों के। पिछले दो साल में मोदी सरकार के खिलाफ मोदी विरोधी मोर्चे एक बेहतर विकल्प के रूप में उभरकर सामने तो आई लेकिन मोदी को सत्ता से बेदखल करने के बदले एक-दूसरे को ही हराने पर उतारू है।
वैचारिक तालमेल
मोदी विरोधी मोर्चे के नेताओं में हितों को लेकर जारी टकराव से महागठबंधन सपा-बसपा के गठजोड़ तक सीमित होकर रह गया है। जबकि इसे वैचारिक धरातल पर राष्ट्रीय स्तर गैर भाजपावाद का गठबंधन होना चाहिए था। सपा-बसपा ने यूपी में रालोद के साथ अलग महागठबंधन कर न केवल मोदी विरोधी पार्टियों को चौकाने का काम किया बल्कि कांग्रेस को मक्खियों की तरह दूध से बाहर निकाल फेंक दिया। परिणाम यह निकाल कि यूपी में कांग्रेस ने अकेले दम पर चुनाव लड़ने का निर्णय लिया जिसका लाभ अभी से भाजपा को मिलने के संकेत दिखाई देने लगे हैं।
टकराव कहां-कहां
महागठबंधन में हितों का टकराव कई स्तरों पर है। यह टकराव महागठबंधन का नेतृत्व करने और अलग-अलग राज्यों में हिस्सेदारी की बात को लेकर है। पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, केरल, दिल्ली, पंजाब और यूपी में यह टकराव सबसे ज्यादा है। बिहार, कर्नाटक, तमिलनाडु और महाराष्ट में भी हितों का टकराव जारी है लेकिन यहां के क्षेत्रीय नेतृत्व ने आपस में तालमेल बैठाते हुए गठजोड़ को अमलीजामा पहनाने का काम कर दिखाया है। लेकिन इन राज्यों हुए गठजोड़ में भी भीतरघात की आशंका बनी हुई है।
विरोधाभासी बयान
शुरुआती दौर में तो एनडीए में एकता को देखते हुए मोदी विरोधी मोर्चे के लोग संभलकर बयान जारी करते रहे, लेकिन लोकसभा चुनाव का चौथा चरण समाप्त होते-होते नेताओं के विरोधाभासी बयान देने का सिलसिला तेज हो गया। अब तो ऐसे भी बयान आने लगे हैं जो भाजपा को निशाना बनाने के बदले महागठबंधन या मोदी विरोधी मोर्चा के नेता आपस में एक-दूसरे को ही नुकसान पहुंचा रहे हैं। इतना ही नहीं बसपा सुप्रीमो मायावती, टीडीपी प्रमुख चंद्रबाबू नायडू, एनसीपी सुप्रीमो शरद पवार, टीएमसी नेता ममता बनर्जी, सपा नेता अखिलेश यादव, सीपीआई नेता सीताराम येचुरी के बयान कांग्रेस को कमजोर करते दिखाई देते हैं तो राहुल और प्रियंका के निशाने पर अब सहयोगी दलों के नेता भी आ गए हैं।
महागठबंधन की नियति को 2 साल पहले समझ गए थे नीतीश
संभवतः महागठबंधन के इस नियति को टकराव की वजह से बिहार के सीएम नीतीश कुमार ने 2017 में ही भांप लिया था। इसलिए उन्होंने आरजेडी के साथ नाता तोड़ भाजपा से जोड़ लिया। अलग होने से पहले नीतीश कुमार ने जुलाई, 2017 में ही कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी और अन्य नेताओं से सैद्धांतिक स्तर पर सभी की भागीदार की रूपरेखा और जिम्मेदारी तय करने पर जोर दिया था। लेकिन उस समय राहुल गांधी ने इस मामले को गंभीरता से नहीं लिया। लेकिन एक बात आज भी साफ है कि नीतीश कुमार ने जिस बात के संकेत दो साल पहले दिए थे वो आज भी विपक्षी मोर्चा में साफ तौर पर दिखाई देता है।
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Updated on:
03 May 2019 11:46 am
Published on:
03 May 2019 07:59 am
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