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Patrika Mahila Suraksha: अब और न सहो चुप्पी तोड़ो! सार्वजनिक स्थलों पर लड़कियां और महिलाएं मिली अनसेफ..

Patrika Mahila Suraksha: छत्तीसगढ़ सरोकार में नई पहल के तहत अब पत्रिका ने बीड़ा उठाया है समाज में अपराध की बढ़ती दर कम करने का।

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महिला सुरक्षा अभियान: कार्यस्थलों पर लगे सीसीटीवी कैमरे, स्वयं भी रहें सतर्क, बढ़ते अपराध पर बोलीं महिलाएं

Patrika Mahila Suraksha: छत्तीसगढ़ सरोकार में नई पहल के तहत अब पत्रिका ने बीड़ा उठाया है समाज में अपराध की बढ़ती दर कम करने का। पत्रिका ने पाठकों की सहभागिता के साथ अपराध नियंत्रणा के लिए 'रक्षा कवच' अभियान की नींव रखी है। इसमें हर उस चेहरे को बेनकाब किया जाएगा, जो समाज की सुरक्षा को खतरा है। आर्थिक अपराध, साइबर ठग, महिला उत्पीड़न, बाल-अपराध, चोरी, हत्या हर क्षेत्र में क्राइम ग्राफ बढ़ रहा है।

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Patrika Mahila Suraksha: कदम कदम पर घूरती है गन्दी नजरें

Patrika Mahila Suraksha: अपराधों की बढ़ोतरी का मुख्य कारण बचाव के तरीकों की जागरूकता में कमी भी है। पुलिस-प्रशासन अपना काम कर रहे हैं, पर पाठकों की सहभागिता के बिना अपराध दर में कमी मुश्किल है… तो आइए इसे कम करने के लिए कदमताल शुरू करें। आंखें खोलतीं यह चंद रिपोर्ट नहीं हैं, बल्कि उस डर और घुटन की सच्चाई है, जो हर रोज महिलाओं को झेलनी पड़ती है। तमाम महानगरों, शहरों में छेड़छाड़ ऐसा मुद्दा है जो हम सभी के बीच हर दिन घटित होता है, लेकिन हम अक्सर इसे नजरअंदाज करते हैं।

वहीँ जब सवाल उठाने की कोशिश की जाती है तो समाज और जिम्मेदारों की खामोशी हमें और भी सख्त ताले में बंद कर देती है। पत्रिका ने तीन राज्यों में इन स्टिंग ऑपरेशन के जरिए उन दरिदों की पहचान की है, जो छिपकर महिलाओं का शिकार करते हैं। जबकि समाज खुद के सभ्य होने का ढोंग करता है।

विशेषज्ञ की बात...

बैड टच से भी सामना

  • सड़क पर चलना भी दूभर
  • चाय की चुस्की भी चेन से नहीं
  • पर्यटन स्थल पर भी सुकून नहीं
  • बसों में बैड टच का मौका

लेंगिक भेदभाव, सामाजिक ढांचा, परिवार में महिलाओं के प्रति दुराग्रह से छेड़छाड़ जैसे अपराध आम बात है। ज्यादातर या कहें सभी महिलाएं लड़कियां अपने जीवन में कभी ना कभी इससे प्रभावित होती हैं। अक्सर देखा गया कि स्कूल में शिक्षक कर्मचारी, विद्यार्थी, ट्यूशन के दौरान बच्चियों के साथ भी यह अपराध होता है।

शिकायत का अधिवक्ता निरूपमा छत्तीसगढ हाईकोर्ट प्रतिशत 15-20 होगा। वजह है हमारा सामाजिक ताना-बाना, जहां लैंगिक अपराध पर महिलाओं को ही दोषी करार देते हैं। धारणा है कि ऐसे अपराध के की यदि शिकायत होगी तो पीड़िता और परिवार की बदनामी होगी। अपराधी की नहीं।

त्वरित कार्रवाई, सुनवाई और सजा भी जरुरी

निरुपमा वाजपई का कहने है की यदि किसी तरह कोई महिला थाने में शिकायत करती भी है तो सजा शायद पांच प्रतिशत या उससे कम मामलों में ही होती होगी। अदालत में यह साबित करना जटिल है। थाना पुलिस में संवेदनशीलता का नितांत अभाव है। कोई हिम्मत करती भी हैं तो घंटों इंतजार और पुलिस के बेतुके सवाल झेलने पड़ते हैं। ले-देकर रिपोर्ट के बाद थाने के चक्कर, जबकि महिलाओं के लिए प्रावधान है कि रिपोर्ट के बाद अन्य पूछताछ के लिए पुलिस सूर्योदय के बाद सूर्यास्त से पहले पीड़ित के घर जाकर बयान दर्ज करे, लेकिन इसका पालन बेहद कम होता है।

अभियोजन के लिए अहम होता है कि वह किस तरह मामले को कोर्ट के समक्ष प्रस्तुत कर रहा है, फिर न्यायालय की कार्यवाही लंबी हो जाती है। आरोपी पक्ष भी मामले को लंबा खींचना चाहता है। इससे पीड़ित पक्ष हताश होने लगता है। छेड़छाड़ जैसे मामलों में सभी को संवेदनशील होना चाहिए। निपटारे और सजा दिलाने के लिए एक समय सीमा तय होना अतिआवश्यक है।