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राजसमंद विधानसभा : बोले वोटर कतरा साल ऊं नाळियां कोनी, हर जगा गेला में कीचड़

गांवों को आज भी सडक़-नालियों की जरूरत, शहर में विकास की बात अब बेमानी

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राजसमंद विधानसभा : बोले वोटर कतरा साल ऊं नाळियां कोनी, हर जगा गेला में कीचड़

Jitrendra Paliwal @ Rajsamand

शनिवार। घड़ी में दोपहर के डेढ़ बजे। स्थान : जिला परिषद भवन, जो कि जिले में पंचायती राज और ग्रामीण राजनीति का सबसे बड़ा केन्द्र है। सरपंच से लेकर जिला प्रमुख और विधायक-सांसद तक का इस इमारत से खासा सरोकार है। इसके गलियारों में सरकारों के पांच साल के कामकाज, विकास के वादे और दावों को लेकर माहौल गर्माया रहता है, लेकिन चुनावी धूप खिलने के बावजूद सर्द मौसम की दुपहरी सुस्ता रही है। लोग अभी नवम्बर की भोर फूटने का इंतजार कर रहे हैं। सियासी आसमान पर सुरमई रंग नजर आने के बावजूद धरती अपने धूसर रंग में ही रमी है। चूंकि प्रदेश के बड़े नेता सत्ता के द्वार की चाबी मेवाड़ में वैष्णव मंदिरों के लिए जगतप्रसिद्ध इस जिले में ही तलाशते हैं, लिहाजा मेरे लिए चुनावी रंगत का मिजाज भांपने का अनुभव भी बड़ा दिलचस्प है।

जिला परिषद भवन के बाहर चाय का ठेला चला रहे गोवद्र्धनलाल छींपा को ज्योंही पहला चुनावी सवाल दागा, उन्होंने तर्कों की बेहद सधी हुई ढाल से उसका सामना करडाला। बोले- मेरे वार्ड 23 में सडक़ें बन गई हैं, नालियां दुरुस्त हैं, बिजली बंदोबस्त अच्छा है और नियमित सफाई हो रही है। राहुल के बारे में कहते हैं, वह तो परदेसी नेता हैं। मोदी के वस्त्रों पर लगे ‘राफेल के दाग’ को यह चायवाला चुनावी दांव-पेच बताता है और कहता है उनकी निर्णायक क्षमता-नीयत पर शक नहीं है। पांच साल तो हालात सुधारने में ही लग गए हैं। मोदी जब भी गद्दी छोड़ेंगे, मर्यादा के साथ। आगे नगर परिषद के वार्ड दो के गायरियावास में निजी कार्य के लिए तगारी में मिट्टी भर रहे हेमराज माली निर्माणाधीन सडक़ को दिखा कहते हैं, यह आरटीओ ट्रेक रोड पन्द्रह साल में कभी नहीं सुधरी। बस पैबंद लगाए गए। चुनाव आते ही काम शुरू हो गया है। ऐसा नहीं कि कुछ नहीं हुआ, कुछ हिस्से में सीसी रोड बनी है। फिर भी उनका दर्द फूट पड़ा- स्पष्ट बहुमत देने के बाद भी काम का मजा नहीं आया। यहीं काम कर रही महिला का घूंघट की ओट से स्वर निकलता है, नाळियां है कोनी, पाणी गेला पे वखर्यो रैवे है। अतरा साल वेई ग्या। कईस काम नी व्यो। मोटरसाइकिल रोककर चर्चा में नानालाल गाडरी भी शामिल हो गए। बोले- शहरी इलाका है, लेकिन हालात गांवों से बदतर। दीए तले अंधेरा है यहां। पार्षद वोट लेकर चले गए। मुडक़र नहीं देखा। वर्तमान पार्षद पहले नगर निकाय प्रमुख भी रह चुके हैं।

टूटी सडक़ों के सहारे डिप्टी खेड़ा तक का सफर तय हुआ। घूंघट ओढ़े जा रही वृद्धा मांगी बाई गुर्जर पहले थोड़ा हिचकिचाई, लेकिन स्थानीय बोली में संवाद की कोशिश की, तो भरोसे के साथ सबकुछ बोल गईं। कौनसा चुनाव है, चुनाव कब है... उन्हें नहीं पता। हां, गांव में आजकल दो पक्षों के प्रमुख लोगों की बैठकें होती हैं। चौपालों में जयकारे और नारे लगते हैं, जिससे लगता है ये चुनावी ढोल बज रहे हैं। मुख्यमंत्री कौन है, वसुंधरा राजे, अशोक गहलोत कौन है, कौनसी पार्टियां चुनाव लड़ती हैं, यह भी उन्हें याद नहीं, लेकिन सरपंच से लेकर ‘बड़े चुनावों’ तक का फैसला गांव की चौपाल पर सामूहिक निर्णय से होता है, यह वह पूरी साफगोई से बताती हैं। आगे जोड़ती हैं- पण वात ते व्या केड़े भी कूण कन्डे वोट देला, लोग अणी वात री खबर नी पड़वा दे। गांव में श्मशान जाने का रास्ता, तलाई की दीवार बन चुकी है। श्मशान की ‘हराई’ बनने की बात चल रही है।

पीपरड़ा में टैंट व्यवसायी दौलतराम सालवी कहते हैं, 20 साल गुजर गए कहते-कहते, यहां एक पशु चिकित्सालय नहीं खोला किसी ने भी। दोनों पार्टियों की दो-दो बार सरकारें बन चुकी हैं। बीसियों बार ज्ञापन दे चुके हैं। सरपंच से लेकर मंत्री-सांसद तक। मवेशियों का इलाज कैसे करवाएं। दूर राजसमंद जाना पड़ता है। गांव में सडक़ें हैं, लेकिन नालियां नहीं। उन्हें दुख होता है कि फरारा के प्रसिद्ध शिव मंदिर तक जाते श्रद्धालुओं को कीचड़ से गुजरना पड़ता है। पूरे गांव से गुजरते हुए कई जगह छींटे उछलकर कपड़ों पर लगते हैं। सडक़ें भी दूषित पानी फैलने से बार-बार टूटती हैं। बगल में वेल्डिंग वर्कशॉप पर काम करते अर्जुन लौहार भी चुनावी बातचीत में सुर मिलाते हुए कह जाते हैं- घर-घर गैस पहुंच गई है। प्रधानमंत्री आवास योजना में दर्जनों घर बन रहे हैं। पानी की टंकी बनने से पेयजल सुलभ हुआ है। अन्नपूर्णा मोबाइल वाहन से अस्पतालों में रोगी-तीमारदारों, आम लोगों को भोजन मुहैया हुआ है। गांव के कुछ युवा बड़े शहरों से लौटकर प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना से जुडक़र खुद का काम शुरू कर चुके हैं।

नाम नहीं छापने की शर्त पर हाइवे स्थित एक मार्बल गोदाम पर बैठे कारोबारी ने नाराजगी जाहिर करते हुए साफ कहा- धंधा बहुत मंदा है। सरकारी नीतियों ने चिंता में डाले रखा। टैक्स, कायदे, नीतियां अब व्यापार के लिए आसान नहीं रही। राजसमंद के सफेद मार्बल को बड़ी स्याह चुनौतियां मिलने लगी हैं और उनसे सामना करने में सरकार की मदद कम ही मिली है।
ग्रामीण इलाके से फिर शहरी क्षेत्र में दाखिल होने पर हाउसिंग बोर्ड में धोइन्दा निवासी किराणा कारोबारी भोलीराम कुमावत से ‘मुठभेड़’ हो गई। धीरे-धीरे विकसित हो रहे इस क्षेत्र के विकास से संतुष्ट, मगर सशंकित भोलीराम बोल पड़ते हैं- अब विकास मायने नहीं रखता। जातिवाद, आरक्षण, नोटबंदी, जीएसटी जैसे मुद्दे हावी रहेंगे। सियासी फैसले इन्हीं मुद्दों के ईर्द-गिर्द होंगे।
विकास तो गहलोत ने भी करवाया, लेकिन लोग सरकार बदल देते हैं। राजस्थान में तो हर बार बदली है। विकास की बात अब बेमानी है। आखिर में सच्चाई को वह कुछ यूं बयां करते हैं, ‘जनता जनार्दन है, उसका कुछ नहीं कह सकते।’ इस बात में लोकतंत्र की खूबसूरती और सत्ताधीशों का डर साफ नजर आ जाता है।