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अंतर्मुखी 9- धर्म का मर्मः आत्मधर्म, लौकिक धर्म एवं मानव धर्म

हम धर्म को तीन भागों में समझने की कोशिश करते हैं। ये तीन भाग हैं आत्मधर्म, लौकिक धर्म एवं मानव धर्म।

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Sunil Sharma

Nov 14, 2017

antarmukhi

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- मुनि पूज्य सागर महाराज

धर्म का नाम सुनते ही सभी के मन-मस्तिष्क में एक समान भाव आते हैं और भगवान की पूजा, भक्ति और आराधना जैसे शब्द दिमाग में कौंधने लग जाते हैं। फिर स्वभावत: व्यक्ति धर्म से थोड़ा दूर होना चाहता है यानी बहुत जरूरी हो तभी इस ओर प्रवृत्त होना चाहता है। हालांकि धर्म के मर्म को समझना सही अर्थ में बहुत मुश्किल लगता है पर यह नामुमकिन नहीं है। तो चलिए आज की इस धर्मयात्रा में हम धर्म के मूल भाव को समझने का प्रयास करते हैं।

हम धर्म को तीन भागों में समझने की कोशिश करते हैं। ये तीन भाग हैं आत्मधर्म, लौकिक धर्म एवं मानव धर्म। इन सभी को मिलाकर एक शब्द में धर्म का अर्थ समझाया जा सकता है कि ‘सकारात्मक सोच’ ही धर्म है। आत्मधर्म करने वाला व्यक्ति सोचता है कि उसके साथ जो अच्छा, बुरा हो रहा है, वही उसका जिम्मेदार है। उसे अपने कर्म फल को स्वीकार करना है और हर समय अपने मुखमंडल पर मुस्कान का भाव बनाए रखना है ।

दूसरी ओर राज आज्ञा, राज्य को सुरक्षित रखने के लिए, संस्कृति के संरक्षण के लिए जो कार्य किए जाते हैं, वे सभी लौकिक धर्म की परिधि में आते हैं। जैसे अपने से बड़ो का विनय करना, परिवार, गांव, राज्य, देश के लिए अभियान चलाना जिससे गांव, राज्य, देश, परिवार में सुख, शांति, समृद्धि रहे और स्वस्थ, शिक्षित होने के साथ व्यक्ति अपना जीवन यापन सुचारू ढंग से कर सके।

इसी प्रकार भगवान की आराधना, भक्ति, उपासना, पूजन, जनसेवा, गरीबों के लिए खाना, कपड़ा स्वास्थ की सेवा उपलब्ध करवाना आदि सब कार्य मानव धर्म की संज्ञा में आता है। मानव धर्म का पालन मनुष्य के रूप में इस भव में जन्म लेने वाले हर व्यक्ति को करना ही चाहिए। क्योकि इस संसार मे मानव ही एक ऐसा प्राणी है जो एक दूसरे की मदद के साथ भगवान की द्रव्यपूर्ण भक्ति कर सकता है। मानव धर्म का पालन करने से मन मे करूणा, दया, वात्सल्य, प्रेम और एक दूसरे की मदद का भाव जाग्रत होता है। इन तीन धर्म का पालन करने वाला ही कर्म निर्जरा कर परमात्मा बन सकता है। इसमें बस इतनी ही तैयारी रखनी है कि कब किस समय किस धर्म को प्रमुखता प्रदान की जाए। इसके बहुत ही सुन्दर उदाहरण भी हमारे सम्मुख हैं।

आत्मधर्म का पालन करते हुए भगवान आदिनाथ ने अपने पौत्र मिरिचि को दोष नहीं दिया जबकि मरीचि भगवान आदिनाथ के समक्ष ही हिंसक धर्म की चर्चा कर रहा था। और तो और उसने 363 मिथ्या मत चला दिए फिर भी भगवान आदिनाथ ने उसे समझाने की चेष्टा नहीं की क्योंकि वे उस समय स्वयं आत्मधर्म का निर्वाह करते हुए अपने आपका चिंतन कर रहे थे और अपने बुरे कर्मो की निर्जरा कर रहे थे।

इसी प्रकार गंगराज राज्य के सेनापति महामंत्री चामुंडराय ने अपने मानव धर्म का पालन करते हुए अपनी मां की इच्छा को पूरा करने और मानव धर्म का निर्वाह करने के लिए कर्नाटक में विश्व प्रसिद्ध भगवान बाहुबली की प्रतिमा का निर्माण करवाया था। इस मूर्ति को बनाने के लिए मेहनताने के रूप में शिल्पी से उन्होंने वादा किया था मूर्ति बनाते समय जितना खराब पत्थर निकलेगा, उतना ही स्वर्ण उसे प्रदान करेंगे। पर शिल्पी ने भी अपने मानव धर्म का निर्वाह करते हुए मूर्ति तो बनाई पर कोई मेहनताना नही लिया और आज तक इस मूर्ति को बनाने वाले का नाम तक किसी को पता नहीं है। दोनों ने अपने मानव धर्म का निर्वाह किया और एक ने अपने धन का तो दूसरे ने अपनी कला का सदुपयोग किया ।

भगवान राम का सबसे बड़ा एक उदाहरण हमारे समक्ष है कि राज्य धर्म निभाने के लिए उन्होंने यह जानते हुए भी कि सीता पवित्र है, फिर भी उन्हें जंगल मे छुड़वा दिया। राज्य धर्म ही लौकिक धर्म में गर्भित होता है। इस प्रकार तीन उदाहरण हमारे पास हैं कि किस प्रकार तीनों महात्माओं ने समय-समय पर तीनों धर्म का पालन किया और परमात्मा बन गए। इसी प्रकार कोई और परमात्मा बनने की राह पर है। भगवान आदिनाथ, भगवान राम और मुनि चामुंडराय ने अपने जीवन मे तीनों धर्म को समय-समय पर महत्व दिया था। पर आज तो कुछ उलटा दिख रहा है। अधिकांश लोग एक-एक धर्म का ही निर्वाह कर रहे हैं और इसीलिए अपने जीवन में परमात्मा और मानवता के गुणों का प्राकट्य नहीं कर पा रहे हैं।

हमारे जीवन में आत्मधर्म, लौकिक धर्म और मानव धर्म का संगम ही सकारात्मक सोच को जन्म दे सकता है। तीनों धर्म का निर्वाह भी सकारात्मक सोच रखने वाला ही कर सकता है। इन तीनों धर्म का पालन करने वाला ही सच्चा, ईमानदार और मेहनती होगा। एकल धर्म का पालन करने वाले के अंदर एक न एक बुराई तो अवश्य ही आ जाएगी। यह बुराई एक चिंगारी के समान है, जो हमारी सारी सकारात्मक सोच और हमारे अच्छे गुणों को जलाकर राख कर देती है।

आज इसी चलन के कारण लोगो मे मानवता, दया, करुणा का अभाव है और वे हिंसा, आतंक के तांडव में प्रवृत्त होकर अपनी संस्कृति-संस्कार को भूल कर बदले की भावना के साथ संसार मे जी रहे हैं। यही कारण है आज कौन धर्मात्मा है और कौन नहीं, इसकी पहचान भी नही हो पा रही है। हर व्यक्ति डरा हुआ है। इस व्याप्त डर से निकलने के लिए तीनों धर्म को समझना होगा और तभी सही मायने में सुख, शांति और समृद्धि मिल सकती है। तभी धर्म का अस्तित्व बच सकता है।