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ईर्ष्या द्वेष, क्रोध, प्रतिशोध की आग में जलना छोड़ दें : आचार्य श्रीराम शर्मा

locationभोपालPublished: Jan 22, 2020 05:26:06 pm

Submitted by:

Shyam

ईर्ष्या द्वेष, क्रोध, प्रतिशोध की आग में जलना छोड़ दें : आचार्य श्रीराम शर्मा

ईर्ष्या द्वेष, क्रोध, प्रतिशोध की आग में जलना छोड़ दें : आचार्य श्रीराम शर्मा

ईर्ष्या द्वेष, क्रोध, प्रतिशोध की आग में जलना छोड़ दें : आचार्य श्रीराम शर्मा

मन रोगी होने पर हमारा अन्तःकरण

शरीर रोगी होने से देह दुख पाती है; मन रोगी होने पर हमारा अन्तःकरण नरक की आग में झुलसता रहता है। कई व्यक्ति देह से तो निरोग दीखते हैं पर भीतर ही भीतर इतने अशान्त और उद्विग्न रहते हैं कि उनका कष्ट रोगग्रस्तों से भी कहीं अधिक दिखाई पड़ता है। ईर्ष्या द्वेष, क्रोध, प्रतिशोध की आग में जो लोग जलते रहते हैं उन्हें आग से जलने पर छाले पड़े हुए रोगी की अपेक्षा अधिक अशान्ति और उद्विग्नता रहती है।

 

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जीवन भर पश्चात्ताप

घाटा, अपमान, भय, आशंका, चिन्ता, शोक, असफलता, निराशा आदि कारणों से खिन्न बने हुए मन में इतनी गहरी व्यथा होती है कि उससे छूटने के लिए कई तो आत्म-हत्या तक कर बैठते हैं और कइयों से उसी उद्वेग में ऐसे कुकृत्य बन पड़ते हैं जिनके लिए उन्हें जीवन भर पश्चात्ताप करना पड़ता है।

 

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आदमी प्रेत-पिशाच की तरह

ओछी तबियत के कुछ आदमी हर किसी को बुरा समझने, हर किसी में बुराई ढूंढ़ने के आदी होते हैं, उन्हें बुराई के अतिरिक्त और कुछ कहीं भी-दीख नहीं पड़ता। ऐसे लोगों को यह दुनिया काली डरावनी रात की तरह और हर आदमी प्रेत-पिशाच की तरह भयंकर आकृति धारण किये चलता-फिरता नजर आता है। इस प्रकार की मनोभूमि के लोगों की दयनीय दशा का अनुमान लगाने में भी व्यथा होती है।

 

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पैशाचिक मनोभूमि

क्रूर, निर्दयी, अहंकारी, उद्दंड, दस्यु, तस्कर, ढीठ, अशिष्ट, गुंडा प्रकृति के लोगों के शिर पर एक प्रकार का शैतान हर घड़ी चढ़ा रहता है। नशे में मदहोश उन्मत्त की तरह उनकी वाणी, क्रिया एवं चेष्टाएं होती है। कुछ भी आततायीपन वे कर गुजर सकते हैं। तिल को ताड़ समझ सकते हैं, खटका मात्र सुनकर क्रुद्ध विषधर सर्प की तरह वे किसी पर भी हमला कर सकते हैं। ऐसी पैशाचिक मनोभूमि के लोगों के भीतर श्मशान जैसी प्रतिहिंसा और दर्प की आग जलती हुई प्रत्यक्ष देखी जा सकती है।

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