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विचार मंथन : व्यर्थ की कल्पनाओं में विचरण करने से युवा शक्ति बचे- प्रज्ञा पुराण

जब एक युवक स्वप्न में राजा बन गया

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भोपाल

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Shyam Kishor

Mar 02, 2019

daily thought vichar manthan

विचार मंथन : व्यर्थ की कल्पनाओं में विचरण करने से युवा शक्ति बचे- प्रज्ञा पुराण भाग

स्वप्न का राजा

एक युवक ने स्वप्न देखा कि वह किसी बड़े राज्य का राजा हो गया है । स्वप्न में मिली इस आकस्मिक विभूति के कारण उसकी प्रसन्नता का ठिकाना न रहा । प्रात:काल पिता ने काम पर चलने को कहा, माँ ने लकडियाँ लाने की आज्ञा दी, धर्मपत्नी ने बाजार से सौदा लाने का आग्रह किया, पर युवक ने कोई भी काम न कर एक ही उत्तर दिया- 'मैं राजा हूँ, मैं कोई भी काम कैसे कर सकता हूँ?'

घर वाले बड़े हैरान थे, आखिर किया क्या जाये? तब कमान सम्भाली उसकी छोटी ***** ने । एक- एक कर उसने सबको बुलाकर चौके में भोजन करा दिया, अकेले खयाली महाराज ही बैठे के बैठे रह गये । शाम हो गई, भूख से आँतें कुलबुलाने लगीं । आखिर जब रहा नहीं गया तो उसने बहन से कहा- 'क्यों री! मुझे खाना नहीं देगी क्या?' बालिका ने मुँह बनाते कहा- राजाधिराज! रात आने दीजिए, परियाँ आकाश से उतरेंगी तथा वही आपके लिए उपयुक्त भोजन प्रस्तुत करेंगी । हमारे रूखे- सूखे भोजन से आपको सन्तोष कहाँ होगा?'

व्यर्थ की कल्पनाओं में विचरण करने वाले युवक ने हार मानी और शाश्वत और सनातन सत्य को प्राप्त करने का, श्रमशील बनकर पुरुषार्थरत होने का, वचन देने पर ही भोजन पाने का अधिकारी बन सका । ऐसे लोगों की स्थिति वैसी ही होती है, जिनका कबीर ने अपनी ही शैली में वर्णन किया है-

ज्यों तिल माही तेल है, ज्यों चकमक में आग ।
तेरा साँई तुझ में, जागि सके तो जाग ॥
ज्यों नैनों में पूतली, त्यों मालिक सर मांय ।
मूर्ख लोग ना जानिये, बाहर ढूँढ़न जाँय ॥