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कैकेयी ने सीता को मुंहदिखाई में क्या दिया था, जानें कैसा था वह अनमोल तोहफा

स्वयंवर में श्रीराम ने भगवान शिव के धनुष को तोड़ दिया और इसी के साथ सीताजी के साथ विवाह के अधिकारी भी हो गए। चूंकि राम ने स्वयंवर की शर्त जीत ली थी इसलिए राजा जनक ने सहर्ष सीताजी का हाथ उन्हें थमा दिया। जनकपुरी में बड़े धूमधाम से दोनों का विवाह करवाया गया। विवाह के बाद जब सीताजी पहली बार ससुराल आईं तो उनकी मुंहदिखाई में स्वर्ण-रत्न-मणियों के ढेर लग गए लेकिन सबसे अनमोल तोहफा दिया महारानी कैकेयी ने।

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अनमोल तोहफा दिया महारानी कैकेयी ने

स्वयंवर में श्रीराम ने भगवान शिव के धनुष को तोड़ दिया और इसी के साथ सीताजी के साथ विवाह के अधिकारी भी हो गए। चूंकि राम ने स्वयंवर की शर्त जीत ली थी इसलिए राजा जनक ने सहर्ष सीताजी का हाथ उन्हें थमा दिया। जनकपुरी में बड़े धूमधाम से दोनों का विवाह करवाया गया। विवाह के बाद जब सीताजी पहली बार ससुराल आईं तो उनकी मुंहदिखाई में स्वर्ण-रत्न-मणियों के ढेर लग गए लेकिन सबसे अनमोल तोहफा दिया महारानी कैकेयी ने।

रामायण और श्रीरामचरित मानस में उल्लेख है कि सीताजी के विवाह के लिए राजा जनक ने स्वयंवर का आयोजन कराया। यहां शर्त रखी गई थी जो शिव धनुष तोड़ेगा उसी के साथ सीताजी का विवाह होगा। राम ने शिवजी के धनुष को तोड़ा और तब राजा जनक ने सीताजी से विधिविधान से उनका विवाह करा दिया।

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विवाह के बाद राम और सीता कई दिनों तक जनकपुरी में ही रहे। इसके बाद वे अयोध्या आए। पहली बार ससुराल आई सीताजी को मुंहदिखाई की रस्म में कई मूल्यवान जेवर, रत्न, माणिक्य आदि दिए गए। अयोध्या की महारानी कौशल्या ने भी अपनी प्रिय बहू सीता का स्वागत किया और मुंहदिखाई की रस्म भी निभाई। इस मौके पर रानी कैकेयी ने भी सीताजी की मुंहदिखाई की और उन्हें सबसे अनमोल तोहफा दिया।

दरअसल कैकेयी ने सीता माता को मुंहदिखाई में एक भव्य और खूबसूरत भवन भेंट किया था। यह भवन सोने का था और इसमें रत्न भी लगे थे। सोने से निर्मित होने के कारण इस भवन को कनक भवन के नाम से जाना जाता था। कनक भवन आज भी अयोध्या में मौजूद है। कनक भवन का एमपी के टीकमगढ़ से खास कनेक्शन है। यहां की रानी वृषभानु कुंअर ने ही कनक भवन का जीर्णाेद्धार कराया था।

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टीकमगढ़ के राजा प्रताप सिंह जूदेव की पत्नी रानी वृषभानु अयोध्या गईं तो कनक भवन की दुर्दशा देख वे दुखी हो उठीं थीं। इतिहासकारों के अनुसार सन 1887 में वे फिर अयोध्या गईं और कनक भवन के तत्कालीन महंत लक्ष्मणदास से इसके जीर्णाेद्धार की इच्छा व्यक्त की। उनकी मंजूरी के बाद रानी ने ओरछा के इंजीनियर व कारीगरों को अयोध्या ले जाकर कनक भवन का दोबारा निर्माण कराया। करीब चार साल में नया कनक भवन बनकर तैयार हुआ। 1891 में यहां विधि विधान से राम की मूर्ति स्थापित कर उसकी प्राण प्रतिष्ठा कराई गई।

त्रेता युग में जब पहली बार कनक भवन बनवाया गया था तब भी यह अनूठा था। पौराणिक ग्रंथों में इस बात का भी उल्लेख है कि कैकेयी को कनक भवन बनाने का विचार सपने में दर्शन के माध्यम से आया। दरअसल राजा दशरथ श्रीराम और सीता के लिए अयोध्या में सुंदर भवन बनवाना चाहते थे। उसी दौरान कैकेयी को सपने में कनक भवन दिखा जिसके बारे में उन्होंने राजा दशरथ से चर्चा की।

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कैकेयी को सपने में दिखी छवि के आधार पर दशरथ ने कनक भवन बनवाया था। सोने के इस सुंदर भवन का निर्माण दशरथ के आदेश पर शिल्पी विश्वकर्मा ने किया था। जब सीता विवाह के बाद पहली बार अयोध्या आई तो कैकेयी ने उन्हें रत्नों से जड़ा हुआ सोने का यह भवन मुंह दिखाई में भेेंट कर दिया।