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यक्ष का सवाल – दुनिया में सबसे अजीब चीज क्या है? युधिष्ठिर का उत्तर आपको झकझोर देगा!

Yudhishtar Reply to Yaksha in Mahabharata : युधिष्ठिर का 'सबसे अजीब चीज' वाला जवाब: क्या मॉडर्न लाइफ-सपोर्ट ने अमरता का भ्रम बढ़ाया?

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भारत

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Manoj Vashisth

Dec 08, 2025

Yudhishtar Reply to Yaksha in Mahabharata

Yudhishtar Reply to Yaksha in Mahabharata : युधिष्ठिर का वह जवाब जिसने इंसानी भ्रम और जीवन के सार को एक ही पल में खोल दिया (फोटो सोर्स: AI image@Gemini)

Yudhishtar Reply to Yaksha in Mahabharata : महाभारत का यक्ष प्रश्न हमेशा मुझे हैरान करता है। सोचिए, यक्ष युधिष्ठिर से पूछता है इस दुनिया में सबसे अजीब चीज क्या है? जवाब कई हो सकते हैं, मगर युधिष्ठिर वही जवाब देता है जो दिल में चुभ जाए: “लाखों लोग मर जाते हैं, फिर भी जिंदा लोग सोचते हैं कि वे नहीं मरेंगे। इस अजीब जिंदगी से ज्यादा अद्भुत क्या हो सकता है?”

इंसान कभी अपनी मौत को लेकर गंभीर नहीं होता। जब तक सब ठीक है, लगता है ये सब बस औरों के साथ होता है। मॉडर्न साइंस ने इस सोच को और भी पक्का कर दिया है। लाइफ-सपोर्ट सिस्टम जैसे वेंटिलेटर, फीडिंग ट्यूब, ECMO—ये सब ऐसी टेक्नोलॉजी हैं, जो शरीर को तब भी चला सकती हैं, जब इंसान की होश, आजादी, या ठीक होने की कोई उम्मीद नहीं बचती। ऐसे में परिवार उम्मीद और हकीकत के बीच झूलते रहते हैं, डॉक्टर भी अपने फर्ज़ और सच्चाई के बीच उलझे रहते हैं। कभी-कभी कोई महीनों, सालों तक एक ऐसी हालत में पड़ा रहता है, जहां सिर्फ़ शरीर जिंदा है, बाकी सब खो चुका है—जैसे एक साया, जिसमें जान बाकी है पर पहचान नहीं।

महाभारत में, सबसे बड़े पांडव युधिष्ठिर (Yudhishtar Reply to Yaksha in Mahabharata) का सामना यक्ष नाम के दिव्य प्राणी से होता है। यक्ष उसे चार सवाल पूछता है, जो हमेशा याद रहते हैं, और युधिष्ठिर के जवाब आज भी उतने ही सटीक लगते हैं—

1. क्या दिमाग हवा से भी तेज़ है?

    हां, दिमाग हवा से भी तेज है।

    2. क्या विचार घास से भी ज्यादा होते हैं?

      सोचें तो, विचार तो घास से भी ज्यादा हैं।

      3. क्या अमरता की कोई सीमा है?

        देखो, हर दिन न जाने कितने लोग मरते हैं, लेकिन जो बच जाते हैं, उन्हें लगता है कि वे अमर हैं। यही सबसे बड़ा कमाल है।

        4. क्या कोई और रास्ता है?

        बहस से सच कभी पूरी तरह से नहीं मिलता। वेद भी एक-दूसरे से अलग हैं। कोई एक ऋषि नहीं, जिसकी राय सब मान लें। धर्म और नैतिकता का सच गहराई में छुपा है। इसलिए वही रास्ता ठीक है, जिस पर बड़े लोग चले हैं।

          अब सवाल उठता है क्या सिर्फ लंबी जिंदगी ही सबसे जरूरी है? या फिर जिंदगी की क्वालिटी, उसका मतलब, उसकी इज़्ज़त उससे कहीं ऊपर है? अगर ऐसा है, तो हमें खुद तय करना होगा कि कहां एक लाइन खींचनी चाहिए, ताकि सिर्फ जीने की खातिर इज़्ज़त, मकसद, और इंसानियत को कुर्बान न कर दिया जाए।

          ये सवाल नया नहीं है। सदियों से लोग, दार्शनिक, कवि इसी ऊहापोह में हैं कि वजूद का असली मतलब क्या है। हमारी पुरानी भारतीय परंपरा भी यही कहती है—ज़िंदगी सिर्फ शरीर नहीं, ये दिमाग, आत्मा और मकसद का मेल है।

          तैत्तिरीय उपनिषद में इंसान को कई परतों में देखा गया है—शरीर, ऊर्जा, मन, आत्मा। असली खुशी और आज़ादी, खुद से मिलने में है, वरना जिंदगी बस एक खोल बनकर रह जाती है।

          दूसरी सभ्यताओं के कवि भी यही बात अपने-अपने अंदाज में कहते आए हैं। टॉल्स्टॉय ने माना, ज़िंदगी का मतलब उसकी लंबाई में नहीं, उसके नैतिक और आत्मिक पहलुओं में है। टैगोर ने लिखा था कि वे “ज़िंदा रहने के ताबूत में बंद होकर नहीं जीना चाहते।” इकबाल ने तो और साफ कहा—“अनंत काल जीवन की चौड़ाई में है, मैं इसकी लंबाई नहीं चाहता।

          इसी सोच से ‘लिविंग विल’ का विचार निकला—एक एडवांस डायरेक्टिव, जिसमें इंसान खुद कहता है कि अगर ठीक होना नामुमकिन हो गया, तो उसे जबरन लाइफ-सपोर्ट पर जिंदा न रखा जाए। मतलब, जैसा हम अपनी जिंदगी का सफर खुद चुनना चाहते हैं, वैसे ही जाने का तरीका भी तय करने का हक़ है। वहीं, यूथेनेशिया—खासकर पैसिव यूथेनेशिया, जिसमें लाइफ-सपोर्ट हटाया जाता है—इस पर बहुत सोच-समझ और संवेदनशीलता चाहिए। डर ये रहता है कि कहीं इसका गलत इस्तेमाल न हो, क्योंकि संस्थाएं, परिवार, डॉक्टर—सब इंसान हैं, गलतियां या स्वार्थ हो सकते हैं। लेकिन सिर्फ डर के चलते इसे पूरी तरह नकार देना, उन लोगों के दर्द को नजरअंदाज करना है, जो वाकई राहत चाहते हैं।

          जब कोई इंसान ऐसे शरीर में कैद हो, जहां ना महसूस कर सकता है, ना बोल सकता है, ना होश में आ सकता है, और डॉक्टर भी कह दें कि अब कुछ नहीं हो सकता—क्या तब जिंदगी को खींचना इंसानियत है? या ये और बड़ी क्रूरता है?

          अगर यूथेनेशिया कड़े नियमों के साथ, पूरी पारदर्शिता और नैतिक सोच के साथ दी जाए, तो ये दया बन सकती है। ये एक पर्दा है जो धीरे-धीरे गिरता है, बिना शोरगुल के। इसमें भारतीय सोच से बेहतर कोई गाइडेंस नहीं मिलती हमारे यहां ज़िंदगी को सफर माना गया है, मौत को बदलाव, हार नहीं। हमें सिखाया जाता है कि आख़िरी सांस तक चिपके रहना न समझदारी है, न जरूरी। असल चीज है—धर्म के साथ जीना, बिना पछतावे के मरना, और दोनों को हिम्मत से अपनाना।

          जैसा मशहूर गाने में कहा गया है: “ऐ मालिक तेरे बंदे हम, ऐसे हों हमारे करम, नेकी पर चलें, और बुरी से डरें, ताकि हंसते हुए निकले दम।” जिंदगी हो या मौत—दोनों को खुले दिल से अपनाना चाहिए।

          फिर भी, युधिष्ठिर की बात याद आती है—हम मौत को मानने के लिए तैयार नहीं होते। इस्लामी कथाओं में खिज्र की कहानी है, जिसे अमरता मिली थी। कवि ज़ौक (19वीं सदी) लिखते हैं

          ‘हो उम्र-ए-खिज्र भी तौ हो मालूम वक़्त-ए-मर्ग
          हम क्या रहे यहाँ, अभी आए अभी चले
          अगर अमर भी होते, तो भी हम गुज़रते समय कहते
          ओह, मैं मुश्किल से यहाँ था, मुझे मुश्किल से ही रुकने का समय मिला’