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ज्वार-बाजरा की खेती से मुह मोड़ रहे किसान

दलहनी खेती घाटे का व्यवसाय हो गया है। किसान व्यवसायिक खेती के ढर्रे पर चल पड़े हैं।

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Now do not see Jwar-millet farming

Now do not see Jwar-millet farming


रीवा. शीत ऋतु में, गांवों में मेड़ के दोनों ओर सिर से भी ऊंचे लहलहाते ज्वार- बाजरे की फसलों से भरे खेत अब सपने हो गए। इन्हीं फसलों के उपर सांझ-सबेरे मड़ारती चिडिय़ों की चहचहाहट और उन्हें भगाने के लिए पुराने टीन के कनस्तर को पीटने की आवाज तो कहीं गोफने से निकली सनसनाती गोटी अब नहीं दिखती। जौ, अरहर, चना, मसूर, मूंग, उड़द आदि की फसल कम उगाई जाने लगी है। वजह हैं आवारा पशु और जंगली नीलगाय। इनके कारण दलहनी खेती को भारी नुकासान होने के चलते एवं बढ़ती जनसंख्या, घटती कास्त की भूमि, लागत की अधिकता और अपर्याप्त उपज के उत्पादन ने परम्परागत खेती के स्वरूप को ही बदल दिया है।

दलहनी खेती घाटे का व्यवसाय
दलहनी खेती घाटे का व्यवसाय हो गया है। किसान व्यवसायिक खेती के ढर्रे पर चल पड़े हैं। व्यवसायिक खेती ने मशीनी उपकरण एवं रासायनिक खाद को बढ़ावा दिया है। किसान अब खलिहान से ही फसल की बिक्री करने के लिए बाध्य हो गया है। जिसके कारण तेजी से बदल रहा है खेती का ढंग और उपज की विविधता। पशु धन की मात्रा घटने लगी है। किसानों के लिए दुधारू मवेशी के अलावा अन्य मवेशी समस्या बनते जा रहे हैं, जिससे ऐरा प्रथा को बढ़ावा मिल रहा है।


यहां होती थी कभी अरहर की फसल
रीवा पूर्वांचल के ग्राम ढखऱा, चौरा, बारीकला, जोरिहा, सोनैरी आदि गांवों में कभी अरहर की फसल सर्वाधिक बोई जाती थी किन्तु अब अवारा पशुओं के कारण फसल की बोनी बन्द हो गई है। ग्राम सतपुरा, अमिलकोनी, बरूआ, अमांव, चिल्ला, पडरी, सोनवर्षा आदि गांवों में ज्वार-बाजरा की फसल अब नही बोई जाती। किसानों का कहना है कि इन फसलों की लागत अधिक है और लाभ कम है। साथ ही आवारा पशुओं के कारण तकवारी भी अधिक है।


किसानों में बढ़ रही अरूचि
ग्राम पडऱी के किसान कृष्णाकान्त द्विवेदी मानते हैं कि ऐरा प्रथा का प्रचलन एवं किसानों की पशु पालन के प्रति रूचि कम होने से ज्वार-बाजरा का उत्पादन बन्द हो रहा है। किसान तुंगनाथ द्विवेदी कहते हैं कि वन पशु नीलगाय एवं रोझ ने किसानों की कमर तोड़ दी है। उस पर कोई प्रतिबन्ध न होने से फसल की लगातार क्षति हो रही है। किसान विद्यार्थी सिंह भी यह मानते हैं कि अवारा पशु के साथ ही ज्वार-बाजरा का उचित मूल्य न मिल पाना भी एक बड़ा कारण है। हालंकि कृषि वैज्ञानिकों का यह मानना है कि ज्वार बाजरा में पौष्टिक तत्व अधिक होता है उसके वावजूद आर्थिक लाभ-हानि ही मायने रखता है। पर्यावरणविद् रामलखन गुप्ता का कहना है कि मोटे अनाज की प्रजातियां विलुप्त होती जा रही है। जिनके संरक्षण हेतु कदम उठाया जाना चाहिए।