
bhagwan ki puja karne ka tarika
सतना। हिन्दू धर्म में प्रार्थना क्या है ये पहले जानना जरूरी है। संतों के अनुसार ईश्वर से किया गया निवेदन प्रार्थना कहलाती है। वैसे तो शास्त्रों में प्रार्थना के कई अर्थ मायने रखते है। व्याकरण के अनुसार निवेदन पूर्वक मांगना प्रार्थना कहलाता है। बल्कि अध्यात्म के अनुसार परम की कामना करना या पवित्र मन से अर्चन करना है। भगवान के सामन झुक कर जब हम कुछ मांगते है तो वह प्रार्थना नहीं।
अपितु सहज निवेदन कहलाता है। लेकिन जब यही निवेदन संसार से परे, परमात्मा को मनाने के लिए हो वो प्रार्थना बन जाता है। यहां MP.PATRIKA.COM को पं. मोहनलाल द्विवेदी वास्तु एवं ज्योतिर्विद मां शारदा धाम मैहर ने पूरा अर्थ समझाया है। द्विवेदी ने बताया कि प्रार्थना के कुछ नियम है। कुछ ऐसी बातें जो हमें प्रार्थना में ध्यान रखनी चाहिए।
1- प्रथम नियम
बताया कि सबसे पहले वासना से परे हो जाएं। तभी प्रार्थना संभव है। संतों का कहना है कि वासना का नाम ऐषणा है। जो तीन प्रकार की होती है। पहला पुत्रेष्णा दूसरा वित्तेषणा और तीसरा लोकेषणा। अर्थात संतान की कामना, धन की कामना और ख्यााति की कामना कहा जाता है। मानव जब इन सब से ऊपर जाकर सिर्फ परमतत्व को पाने की लिए परमात्मा के पास जाता है। तभी पूजा घटती है। उस परम का प्राप्त करने की चाह, हमारे अंतर्मन पर गूंजते हर वो शब्द मंत्र बन जाते है। इस तरह में मंत्र गौण हो जाते हैं, हर वो अक्षर मंत्र हो जाता है।
2- द्वितीय नियम
संतों के अनुसार भगवान से उसी की मांग हो जिसका आप निर्वहन कर सके। मंदिरों में प्रार्थना करना सिर्फ सांसारिक सुखों के लिए अर्जियां लगाने को नहीं कहते है। बल्कि परमात्मा से उसी को मांग लिया जाए। जब आपके जीवन में पदार्पण की मांग हो, वो प्रार्थना कहलाती है। इसलिए आप अगर पूजा में सुख मांगते है तो सुख आएगा, लेकिन भगवान खुद को आपके जीवन में नहीं उतारेगा। जब आप परमात्मा से उसी को अपने जीवन में उतरने की इच्छा जाहिर करेंगे तो उसके साथ सारे सुख बाय डिफाल्ट ही आ जाएंगे।
3- तृतीय नियम
संतों का कहना है कि प्रार्थना कभी अकेले में नहीं करनी चाहिए। बल्कि एकांत में करनी चाहिए। यहां अकेलापन नहीं, का अर्थ एकांत से है। दोनों में बड़ा आध्यात्मिक अंतर है। यानी अकेलापन अवसाद को जन्म देता है। क्योंकि इंसान संसार से तो विमुख हो जाता है लेकिन परमात्मा के सम्मुख नहीं जा पाता। यहां एकांत का अर्थ है आप बाहरी आवरण में अकेले है, लेकिन भीतर परमात्मा साथ-साथ है। जीवन में वैराग व परमात्मा से अनुराग, एकांत को जन्म देता है। जब एक का अंत हो जाए और मनुष्य अकेले हो तो भीतर परमात्मा का प्रेम आ गया है तो समझो जीवन में एकांत आ गया है। संतों के अनुसार पहले अकेलेपन को एकांत में बदलें, फिर प्रार्थना स्वत: जन्म ले लेगी।
4- चतुर्थ नियम
प्रार्थना में यदि अपने लिए कुछ मांग करे है तो परमात्मा को मांगिए लेकिन दूसरों के लिए भी सुख-शांति की कामना कीजिए। इस तरह की गई पूजा नि:स्वार्थ प्रार्थना कहलाती है। कोशिश करें कि कभी-कभार ईश्वर से किसी ऐसे इंसान के लिए भी कुछ मांगे जो आपसे जुड़ा नहीं है, इसका सीधे लाभ या हानि का कोई संबंध नहीं है। दूसरों के लिए अच्छी प्रार्थना करें और भगवान से सुख-शांति मांगे तभी समाज ऊंचाई की ओर जाएगा। आपको ये सब करने से जो शांति और तृप्ति मिलेगी वो अतुलनीय होगी।
5- पांचवां नियम
पहले स्वयं को आजमाएं। क्या आपकी प्रार्थना वाकई सही दिशा में जा रही है या नहीं इसे आजमाने का प्रयास करें। अगर परेशानियों में आपको ये लग रहा है कि आप अकेले नहीं है। अगर कोई है जो आपको रास्ता दिखा रहा है पीछे से, तो भगवान आपके साथ है। अगर परेशानी में खुद को अकेला और हारा हुआ महसूस करते है। या फिर बहुत जल्दी घबरा जाते है तो समझ लीजिए कि आप अभी भगवान तक अपनी बात पहुंचा ही नहीं पाए है। कहते है कि प्रार्थना बिना मांगे सब पाने का नाम है। अगर आप में विपरीत परिस्थितियों में सहज रहने और मुस्कुरा कर सबका सामना करने की शक्ति आ रही है तो समझों आप उससे जुड़ चुके हैं।
6- छठवां नियम
शास्त्रों की मानें तो पहले खुद को समय दें। इस दौर में इंसान का सारा समय दूसरों की सेवा में जा रहा है। इसलिए पहले अपने आप को समय देना सीखें। संचार के सारे संसाधनों से दूर, दिन में, सप्ताह में या फिर महीने में कुछ समय ऐसा निकालें, जब आप के साथ सिर्फ आप खुद हों। जीवन और उसके पहलुओं पर चिंतन करें। कहां हमसे चूक हुई, कितना समय खपा चुके है। परमात्मा और आत्मिक शांति के लिए क्या किया है आज तक इस पर मनन करें। ये समय आपने जो अपने साथ बिताया है ये आपके जीवन को नई दिशा में ले जाएगा।
Published on:
03 Apr 2018 12:14 pm
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