
MP election 2018: ground report of nagod vidhan sabha 1998 result
भारत भूषण श्रीवास्तव @ सतना। रामप्रताप सिंह की पहचान क्षेत्र में जुझारू नेता के रूप में रही। 1985-1998 तक नागौद की राजनीति का यह बड़ा नाम था। वे नागौद किले की राजनीति से सीधे लोहा लेते रहे। बताया जाता है कि क्षेत्र में किसी की बेटी की शादी हो या गमी, जानकारी लगते ही उसके दरवाजे पर पहुंचते हैं। यही उनकी लोकप्रियता का बड़ा कारण है। एक किस्सा उनके निर्दलीय चुनाव लडऩे का है। कांग्रेस का मजबूत दावेदार होने के बाद भी उनकी टिकट काट दी गई थी। इसके बाद वे घोषित बागी के रूप में चुनावी मैदान में आए और 33.74 फीसदी वोट के साथ विधायक चुने गए थे।
अर्जुन सिंह उन्हें टिकट नहीं दिया
दरअसल, रामप्रताप सिंह को कांग्रेस के कद्दावर नेता अर्जुन सिंह ने राजनीति में उतारा था। इस कारण वे अर्जुन सिंह को राजनीतिक गुरु मानते थे। बाद में परिस्थितियां दोनों के बीच उल्टी होती चली गईं। अर्जुन सिंह उन्हें नापसंद करने लगे। लेकिन, क्षेत्रीय राजनीति में पकड़ रखने व मतदाताओं में लोकप्रियता के चलते अर्जुन सिंह उन्हें रोक नहीं पा रहे थे। उनके न चाहने के बावजूद 1985, 1990 व 1993 में कांग्रेस ने टिकट दिया और वे दो बार विधायक चुने गए। 1993 के चुनाव में उन्हें भाजपा के रामदेव सिंह से हार का सामना करना पड़ा। अर्जुन सिंह इसी अवसर के इंतजार में थे। जब 1998 में पुन: चुनाव का समय आया तो नागौद से रामप्रताप सिंह कांग्रेस के प्रबल दावेदार थे पर अर्जुन सिंह उन्हें टिकट नहीं देना चाहते थे।
कांग्रेस से बगावत कर दी
लिहाजा, उन्होंने अपने करीबी माने जाने वाले सतना के राजाराम का नाम प्रस्तावित कर दिया। कांग्रेस ने उन्हें टिकट भी दे दिया। इसके बाद रामप्रताप सिंह ने कांग्रेस से बगावत कर दी। निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़ गए। असर यह रहा कि वे 31586 वोट के साथ विधायक चुने गए, वहीं राजाराम त्रिपाठी को 12308 वोट मिले थे। वे चौथे नंबर पर आए थे। भाजपा के रामदेव सिंह 22625 मत के साथ दूसरे व बसपा के रामाश्रय बागरी 14203 मत के साथ तीसरे नंबर पर रहे। हालांकि उसके बाद वे समाजवादी पार्टी में भी गए। 2003 में सपा की टिकट पर चुनाव लड़े पर विधायक नहीं बन सके। अब उनके उत्ताधिकारी के रूप में गगनेंद्र प्रताप सिंह राजनीति को आगे बढ़ा रहे हैं।
किले से मुकाबला
बताया जाता है कि आजादी के बाद भी नागौद महाराज महेंद्र सिंह जूदेव क्षेत्र में प्रभावकारी भूमिका में थे। स्थिति यह थी कि जवाहर लाल नेहरू जैसे कद्दावर नेता की सभा तक प्रभावित कर देते थे। लिहाजा, उस दौर की राजनीति को देखते हुए तत्कालीन कांग्रेसी नेताओं ने गोपालशरण सिंह को आगे बढ़ाया था। वे किले की राजनीति से स्थानीय स्तर पर टक्कर लेते रहे। उन्होंने अपने उत्तराधिकारी के रूप में भतीजे रामप्रताप सिंह को चुना। वे भी चाचा की परंपरा को ही बढ़ाने में ही रुचि रखते रहे। कांग्रेस की टिकट पर नागौद से 1985 में विधायक चुने गए। उसके बाद 1990 व 1998 में विधायक चुने गए।
जब वेतनवृद्धि का किया था विरोध
1998 में रामप्रताप सिंह विधायकों के वेतनवृद्धि के प्रस्ताव का विरोध कर चर्चा रहे। बताया जाता है कि वे विधानसभा परिसर में थे। तभी एक विधायक ने उन्हें कहा कि बधाई हो, अब तो वेतनभत्ता बढऩे वाला है। यह सुन वे सीधे तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के कक्ष में पहुंचे और साफतौर पर कहा कि आर्थिक तंगी से जूझ रहे प्रदेश में विधायकों का वेतन बढ़ाना उचित कदम नहीं। उसके बाद दिग्विजय सिंह उन्हें लेकर सीधे तत्कालीन विस अध्यक्ष श्रीनिवास तिवारी के पास पहुंचे। करीब दो दर्जन अन्य विधायक व मंत्री भी अध्यक्ष तिवारी के कक्ष में पहुंच गए।
प्रस्ताव का उद्देश्य व कारण स्पष्ट किया जाए
वहां दिग्विजय सिंह ने कहा कि वेतन भत्ता बढ़ाने के प्रस्ताव का रामप्रताप सिंह विरोध कर रहे हैं तो विस अध्यक्ष तिवारी ने कहा था कि मैं भरोसा दिलाता हूं कि ऐसा नहीं करेंगे। इस पर रामप्रताप सिंह ने कहा कि आप मुझे लेकर यह आश्वासन कैसे दे सकते हैं। उसके बाद विधानसभा पटल पर प्रस्ताव रखा गया। निर्दलीय विधायक रामप्रताप सिंह ने सभी के विरोध के बाद भी आपत्ति दर्ज कराई। उन्होंने दो टूक पूछा कि हर प्रस्ताव का उद्देश्य व कारण बताया जाता है। इस प्रस्ताव का उद्देश्य व कारण स्पष्ट किया जाए। जवाब मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ही देने उठे। उन्होंने सीधा जवाब न देते हुए अन्य राज्यों के विधायकों के वेतन भत्तों से तुलना की। जिसे रामप्रताप सिंह ने नहीं स्वीकारा और सदन से वॉक आउट कर गए।
Published on:
29 Oct 2018 10:44 am
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