26 दिसंबर 2025,

शुक्रवार

Patrika LogoSwitch to English
home_icon

मेरी खबर

icon

प्लस

video_icon

शॉर्ट्स

epaper_icon

ई-पेपर

समाजवाद के गढ़ विंध्य में 1957 के बाद जातीय समीकरण ने बनाया घर, अब चुनाव में सबसे बड़ी भूमिका

मुद्दा-6: राजनीति में जातिवाद : जाति है कि जाती नहीं

5 min read
Google source verification
MP election news: vindhya region me jatiwad ke kisse

MP election news: vindhya region me jatiwad ke kisse

सतना। विंध्य में जिन लोगों ने समाजवाद की अलख जनता के मन में जगाई थी, वही आगे चलकर जातिवाद के सूत्रधार बने। कांग्रेस, जनसंघ या अन्य दलों में शामिल होकर सियासी रण में जाति का समीकरण निकाला। अब पार्टियां जातिगत वोट बैंक के आधार पर ही टिकट का बंटवारा करती हैं। ऐसे में लोकतंत्र और संविधान की परिकल्पना से परे चुनाव में जातियों की भूमिका बढ़ गई है। विंध्य में कैसे क्यों आगे बढ़ी जाति रमाशंकर शर्मा की रिपोर्ट:

विंध्य में ऐसे आया जातीय समीकरण
1957 से पहले तक विंध्य समाजवादियों का गढ़ रहा। यहां से उठने वाली आवाज राष्ट्रीय स्तर तक गूंजती रही है। राममनोहर लोहिया का पसंदीदा क्षेत्र रहा है। चंद्र प्रताप तिवारी, जमुना प्रसाद शास्त्री, जगदीश चंद्र जोशी, श्रीनिवास तिवारी जैसे प्रमुख नाम समाजवाद के बड़े स्तंभों में गिने जाते थे। विंध्य प्रदेश के विलय के बाद से यहां राजनीति ने नया रुख लेना शुरू किया। जातिवाद की पहली चिंगारी सीधी जिले के चुरहट से निकली। अर्जुन सिंह के पिता राव शिवबहादुर सिंह को 1952 के पहले चुनाव में ही सोशलिस्ट पार्टी के जगतबहादुर सिंह ने चुनाव हरा दिया था। 1957 में अर्जुन सिंह ने निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर जगतबहादुर को हराया और सोशलिस्ट को समाप्त करने को उभरता हुआ चेहरा बने। सोशलिस्ट के नेता चंद्रप्रताप तिवारी ने 1967 में ब्राह्मणों का बड़ा सम्मेलन कराने के बाद सामाजिक आंदोलन को राजनीति में बदला और सफल भी हुए। अर्जुन सिंह को उन्होंने चुनाव हरा दिया था। 1972 में चंद्रप्रताप कांग्रेस में शामिल हो गए। रीवा में यमुना प्रसाद शास्त्री, जगदीश चंद्रजोशी और श्रीनिवास तिवारी समाजवादी आंदोलन के अगुआ थे, जो जाति की राजनीति में आए। जानकारों की मानें तो अर्जुन सिंह ने खुद को मजबूती से स्थापित करने में जातिवाद का सफल प्रयोग किया। अर्जुन सिंह के शागिर्द माने जाने वाले इंद्रजीत पटेल भी इस समीकरण को अंगीकार किए। परिणाम यह निकला कि विन्ध्य जातिगत राजनीति की प्रयोगशाला बन गया।

सतना में जाति का उदय
सतना की राजनीति में जाति के प्रादुर्भाव में अर्जुन सिंह का असर रहा। जानकार बताते हैं कि उस दौर में अर्जुन सिंह और गुलशेर अहमद यहां की राजनीति की धुरी थे। अर्जुन के जातीय समीकरण के क्रिया की प्रतिक्रिया से ही गुलशेर अहमद का कद बढ़ा और वे ब्राह्मण वर्ग के नेता बन गए। उन्हें पंडित गुलशेर अहमद कहा जाने लगा। जातीय समीकरण की आग तब तक धधकने लगी थी जब एक नया प्रयोग रामानंद सिंह पर किया गया। पटेल वोटर को साधने उन्हें आगे लाया गया। गणेश सिंह भी उसी धारा से आगे आए। अर्जुन सिंह की हार और राजाराम त्रिपाठी को सपा से मिले वोटों को भी जातिगत आधार पर देखा जाता है।

कितना प्रभाव पड़ता है जाति का
चुनावों में अब जाति और धर्म बड़े पैमाने पर असर करते हैं। मध्यप्रदेश में तो सबसे ज्यादा रीवा, सतना, और सीधी में जातिगत समीकरण के आधार पर चुनाव लड़ा जाता है। यहां ब्राह्मण, ठाकुर, पटेल जाति के लोग चुनावी समीकरण बनाते और बिगाड़ते हैं। बीच-बीच में वोटकटवा के रूप में वैश्य, कुशवाहा सहित कुछ अन्य जाति वर्गों की गणित बैठाई जाती है। सतना जिले की बात करें तो लगभग हर विधानसभा में जातिगत समीकरण सीधा असर करते हैं। मसलन प्रत्याशियों की जाति के आधार पर उन्हें मिलने वाले वोट का अंतर स्पष्ट नजर आता है। जिले के चुनाव में ऐसे कई उदाहरण देखे जा सकते हैं। स्थिति यहां तक होती है कि उसी पार्टी से अगर एक प्रत्याशी एक जाति का होता है तो उसे मिलने वाले वोट और दूसरी जाति का होता है तो उसे मिलने वाले वोट में अंतर स्पष्ट नजर आता है। इस बार के चुनाव में ही देखें तो नागौद, मैहर, सतना, रामपुर में इसका सीधा और तीखा प्रभाव देखने को मिल रहा है। यहां के समीकरण हर जुबान पर चर्चा में हैं। जाति के प्रभाव का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि इस बार एक भी सीट ऐसी नहीं जहां विकास और समस्या मुद्दों की मुख्य धारा में हैं बल्कि जाति चर्चा में है।

इन चुनावों में सबसे ज्यादा दिखा जाति का असर
सतना जिले में कुछ चुनाव ऐसे माने जाते हैं जिन पर जातिवाद का घोर असर बताया जाता है। सबसे चर्चित 1996 में हुआ लोकसभा का वह चुनाव है जिसमें भाजपा से वीरेंद्र सखलेचा, तिवारी कांग्रेस से अर्जुन सिंह और बसपा से सुखलाल प्रसाद मैदान में थे। सखलेचा को बाहरी मानते हुए अर्जुन सिंह और सुखलाल कुशवाहा में सीधा मुकाबला हो गया था। उस वक्त एक साप्ताहिक मैग्जीन में अर्जुन सिंह के पुत्र अजय का बयान चर्चा का विषय बनाया गया। इसके बाद जातिवाद की चाशनी में डूबा दूसरा बड़ा चुनाव विधानसभा का लालता प्रसाद खरे और बृजेन्द्रनाथ पाठक का माना जाता है। इसमें भी पाठक को जाति का काफी फायदा मिला था। 90 के बाद के दशक में सबसे ज्यादा जातिवादी चर्चित चुनावों में शंकरलाल तिवारी निर्दलीय, मांगेराम गुप्ता बीजेपी और सइद अहमद कांग्रेस के बीच का माना जाता है। इस चुनाव में भी जातियां खुल कर सामने आ गईं थीं।

ऐसे दिखा जाति का प्रभाव
जातीय लहर पर सवार भीम सिंह 1991 में बसपा से देश के पहले सांसद बने। यह वह दौर था जब बसपा पूरी तरह जातीयता की ही राजनीति पर चुनाव मैदान में थी। धीरे-धीरे जाति की राजनीति ने विंध्य के हर जिलों में अपना प्रभाव तेज किया। आज स्थिति यह है कि हर विधानसभा में अपनी अपनी जाति के आधार पर चुनाव को प्रभावित किया जा रहा है।

ऐसे साधी जाती हैं जातियां
जातिगत समीकरण बनाने के कई हथकंडे अपनाए जाते हैं। पहले तो जातियों की छोटी-छोटी बैठकें कर कसमें खिलाई जाती थीं। बाद में एक बड़े वोट बैंक के सामने जातीय मुद्दों को आगे कर लड़ा जाने लगा। इसके बाद प्रत्याशी की जाति से ही चुनाव जोड़ा जाने लगा और अपने वर्ग को लाभ दिलाने और आगे बढ़ाने की बात की जाती है। वर्तमान में तो सोशल मीडिया से जातिवादी मुद्दे और धर्म को आगे कर भी चुनाव साधे जाते हैं।

ये चुनाव रहे जातिवाद से दूर
जिले में कई जनप्रतिनिधि और नेता ऐसे भी रहे जो जातिवादी गणित से दूर रहे। सबसे चर्चित नाम कांताबेन पारेख, लालता प्रसाद खरे, विजय नारायण राय, नारायण सिंह, शिवानंद श्रीवास्तव, अरुण सिंह और बीएल यादव के रहे। जीत का सबसे बड़ा आधार सहजता और सहज उपलब्धता थी। जनता के सुख दु:ख में सहभागी बनते थे और काम कराने में किसी भी तरह का संकोच नहीं करते थे।

बसपा की एक कहानी, हाशिए पर पहुंची कांग्रेस
बहुजन समाज पार्टी को मूल रूप से दलित जातीय चेतना से जुड़ी पार्टी माना जाता रहा है। लेकिन, समय के हिसाब से इसने भी जातीय रंग में रंगते हुए कई बार अपने कलेवर बदले और सोशल इंजीनियरिंग तक का मुलम्मा चढ़ाया। वर्तमान में देखें तो यह बागियों की सवारी बन कर रह गई है। 1970 और 80 के दशक में दलित चेतना के आधार पर कांशीराम के नेतृत्व में खड़ी हुई पार्टी ने आक्रामक तेवर के साथ बहुजन प्रयोग किया। इसने सीधे अगड़ी और पिछड़ी जातियों का खेल भी खेला और इस पर आधारित नारे भी काफी चर्चित रहे। तिलक, तराजू और तलवार से जुड़े नारे ने तो हिंसा तक की स्थिति पैदा कर दी। सतना के कई क्षेत्रों में विवाद भी हुए। लेकिन कालांतर में राजनीतिक पैंतरों से बसपा का कोर वोटर ही उसकी राजनीति से दूरी बनाने लगा और अन्य जातियों का भी समीकरण प्रभावित करने लगा। तब बसपा ने सोशल इंजीनियरिंग का दावं खेला और अगड़ा-पिछड़ा छोड़कर सभी के लिए दरवाजे खोले। हालांकि यह फार्मूला ज्यादा हिट नहीं हुआ और देश को पहला सांसद देने वाले क्षेत्र से ही सूपड़ा साफ होने लगा। स्थिति की मार अब यह हुई कि ज्यादातर इसकी पहचान बागियों को अपना सिंबल देने वाली पार्टी के रूप में होती जा रही है। लेकिन, बसपा की कहानी में सबसे बड़ा तथ्य अगर कुछ छिपा है तो वह यह है कि इसने कांग्रेस को हाशिये में डालने का काम किया है। इसके बाद से कांग्रेस अपने उस मजबूत स्वरूप में कभी नहीं आ सकी जो वो थी। क्योंकि बसपा ने एससी और एसटी का एक बड़ा तबका कांग्रेस से छीन कर अपने पाले में कर लिया है।

पार्टी और जाति की स्थिति
1- चित्रकूट
कांग्रेस - ब्राह्मण
बसपा - पटेल
भाजपा - क्षत्रिय

2-रैंगांव
आरक्षित - अनुसूचित जाति

3-सतना
कांग्रेस - कुशवाहा
बसपा - क्षत्रिय
भाजपा - ब्राह्मण

4-नागौद
भाजपा - क्षत्रिय
कांग्रेस : क्षत्रिय
बसपा : कुशवाहा

5-मैहर
बसपा - पटेल
भाजपा - ब्राह्मण
कांग्रेस - ब्राह्मण

6-अमरपाटन
बसपा - एसटी
कांग्रेस - क्षत्रिय
भाजपा - पटेल

7-रामपुर बाघेलान
बसपा - पटेल
कांग्रेस - ब्राह्मण
भाजपा - क्षत्रिय