
शहडोल. आज बसंत पंचमी है, यानि विद्या की देवी सरस्वती की पूजा का दिन। आज ही के दिन एक ऐसे व्यक्ति का जन्म हुआ था जो सरस्वती का सबसे बड़ा साधक है। दुनिया से निराला ये कवि का हर एक शब्द सकारात्मक ऊर्जा से भर देता है। इनकी कविताएं अद्भुत हैं। वीर, शृंगार, भक्ति, प्रकृति की एक से बढ़कर एक कविताएं इन्होंने रचीं हैं। हिन्दी को लेकर इस कवि ने गांधी जी से भी झगड़ा कर लिया था। आज की युवा पीढ़ी यदि इनकी कविताएं पढ़े तो घोर निराशा में भी हमें पॉजिटिव थिंकिंग में मदद कर सकतीं हैं।
गांधी और नेहरू से भी टक्कर
हिन्दी के खिलाफ टिप्पणी से नाराज होकर सूर्यकांत त्रिपाठी निराला से भी टक्कर ले ली थी। उन्होंने गांधी जी को उनके ही कैंप में ललकारा था। निराला के तर्कों के आगे गांधी जी भी निरुत्तर हो गए थे। निराला की महात्मा गांधी, पंडित नेहरू, टंडन जी तथा सम्पूर्णानंद जी से उनकी भिड़ंतों की कई कथाएं हैं। एक बार गांधी जी ने कह दिया कि हिन्दी में एक भी रवीन्द्रनाथ टैगोर नहीं हुआ तो निराला जी ने ललकारते हुए कहा- 'गांधी जी, आपको हिन्दी का क्या पता। उसको तो हम जानते हैं। आपने मेरी रचनाएं पढ़ी हैं? राष्ट्रभाषा के प्रश्न पर नेहरू जी से निराला जी की भिड़ंत रेलगाड़ी में हुई थी। बातचीत के दौरान नेहरू जी ने हिन्दी शब्द भण्डार पर कुछ छींटाकशी की तो निराला जी ने पूछ दिया- 'क्या आप 'ओम' का अर्थ बता सकते हैं?Ó नेहरू जी कोई जवाब नहीं दे पाए थे।
पूंजीवाद से टक्कर
हम बात कर रहे हैं सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की। निराला ने कैपटलिज्म को तब खराब बताया था जब भारत आजाद भी नहीं हुआ था। इनकी एक बहुत ही फेमस कविता है 'कुकुरमुत्ता। उसकी बानगी आप भी देखिए।
आया मौसिम, खिला फ़ारस का गुलाब,
बाग पर उसका पड़ा था रोब-ओ-दाब;
वहीं गन्दे में उगा देता हुआ बुत्ता
पहाड़ी से उठे-सर ऐंठकर बोला कुकुरमुत्ता-
"अब, सुन बे, गुलाब,
भूल मत जो पायी खुशबु, रंग-ओ-आब,
खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट,
डाल पर इतरा रहा है केपीटलिस्ट!
कितनों को तूने बनाया है गुलाम,
माली कर रक्खा, सहाया जाड़ा-घाम,
हाथ जिसके तू लगा,
पैर सर रखकर वो पीछे को भागा
औरत की जानिब मैदान यह छोड़कर,
तबेले को टट्टू जैसे तोड़कर,
शाहों, राजों, अमीरों का रहा प्यारा
तभी साधारणों से तू रहा न्यारा।
वरना क्या तेरी हस्ती है, पोच तू
कांटो ही से भरा है यह सोच तू
कली जो चटकी अभी
सूखकर कांटा हुई होती कभी।
रोज पड़ता रहा पानी,
तू ***** खानदानी।
चाहिए तुझको सदा मेहरून्निसा
जो निकाले इत्र, रू, ऐसी दिशा
बहाकर ले चले लोगो को, नही कोई किनारा
जहाँ अपना नहीं कोई भी सहारा
ख्वाब में डूबा चमकता हो सितारा
पेट में डंड पेले हों चूहे, जबां पर लफ्ज़ प्यारा।
देख मुझको, मैं बढ़ा
डेढ़ बालिश्त और ऊंचे पर चढ़ा
और अपने से उगा मैं
बिना दाने का चुगा मैं
कलम मेरा नही लगता
मेरा जीवन आप जगता
तू है नकली, मै हूँ मौलिक
तू है बकरा, मै हूँ कौलिक
तू रंगा और मैं धुला
पानी मैं, तू बुलबुला
तूने दुनिया को बिगाड़ा
मैंने गिरते से उभाड़ा
तूने रोटी छीन ली जनखा बनाकर
एक की दी तीन मैने गुन सुनाकर।
भगवान को प्रेरित करती इनकी कविता
हम बात कर रहे हैं महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की। इन्होंने एक महाकाव्य की रचना की है। 'राम की शक्ति पूजा की। इस महाकाव्य में राम और रावण के युद्ध का वर्णन है। कई प्रयासों के बाद भी जब राम, रावण पर विजय प्राप्त नहीं कर पाते, क्योंकि उसकी रक्षा शक्ति यानि देवी कर रहीं थीं। तब वह निराश हो जाते हैं, लेकिन तब निराला लिखते हैं।
कह हुए भानुकुलभूष्ण वहाँ मौन क्षण भर,
बोले विश्वस्त कण्ठ से जाम्बवान, "रघुवर,
विचलित होने का नहीं देखता मैं कारण,
हे पुरुषसिंह, तुम भी यह शक्ति करो धारण,
आराधन का दृढ़ आराधन से दो उत्तर,
तुम वरो विजय संयत प्राणों से प्राणों पर।
भक्ति
सूर्यकांत त्रिपाठी निराला भक्ति की भी कविताएं लिखते रहे हैं। इन्होंने मां सरस्वती की वंदना लिखी है जो दुनिया भर में फेमस है।
वर दे, वीणावादिनि वर दे।
प्रिय स्वतंत्र रव, अमृत मंत्र नव भारत में भर दे।
काट अंध उर के बंधन स्तर
बहा जननि ज्योतिर्मय निर्झर
कलुष भेद तम हर प्रकाश भर
जगमग जग कर दे।
नव गति नव लय ताल छंद नव
नवल कंठ नव जलद मन्द्र रव
नव नभ के नव विहग वृंद को,
नव पर नव स्वर दे।
बेटी का भी सौंदर्य वर्णन
धीरे-धीरे फिर बढा़ चरण,
बाल्य की केलियों का प्रांगण
कर पार, कुंज-तारुण्य सुघर
आईं, लावण्य-भार थर-थर
काँपा कोमलता पर सस्वर
ज्यौं मालकौस नव वीणा पर,
नैश स्वप्न ज्यों तू मंद मंद
फूटी उषा जागरण छंद
काँपी भर निज आलोक-भार,
काँपा वन, काँपा दिक् प्रसार।
परिचय-परिचय पर खिला सकल --
नभ, पृथ्वी, द्रुम, कलि, किसलय दल
क्या दृष्टि। अतल की सिक्त-धार
ज्यों भोगावती उठी अपार,
उमड़ता उर्ध्व को कल सलील
जल टलमल करता नील नील,
पर बँधा देह के दिव्य बाँध;
छलकता दृगों से साध साध।
सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' एक नजर
निराला का जन्म वसन्त पंचमी के दिन 21 फरवरी 1896 को बंगाल के मेदिनीपुर जिले के महिषादल नामक देशी राज्य में हुआ। निवास उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के गढ़ा कोला गाँव में। शिक्षा हाईस्कूल तक ही हो पाई। हिन्दी, बांग्ला, अंग्रेजी और संस्कृत का ज्ञान आपने अपने अध्यवसाय से स्वतन्त्र रूप में अर्जित किया।
1918 से 1922 ई. तक निराला महिषादल राज्य की सेवा में रहे, उसके बाद से सम्पादन, स्वतन्त्र लेखन और अनुवाद-कार्य। 1922-23 ई. में 'समन्वयÓ (कलकत्ता) का सम्पादन। 1923 ई. के अगस्त से 'मतवाला'—मंडल में। कलकत्ता छोड़ा तो लखनऊ आए, जहाँ गंगा पुस्तकमाला कार्यालय और वहाँ से निकलनेवाली मासिक पत्रिका 'सुधा' से 1935 ई. के मध्य तक सम्बद्ध रहे। 1940 ई. तक लखनऊ में। 1942-43 ई. से स्थायी रूप से इलाहाबाद में रहकर मृत्यु-पर्यन्त स्वतन्त्र लेखन किया। उनका निधन 15 अक्टूबर, 1961 को हुआ।
Published on:
22 Jan 2018 02:44 pm
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